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परस्पर घिसने से जीवको भला सुख ही क्या हो सकता है । भोग भोगते समय विषयोंसे सुखके जैसा भान होता जान पडता है; परन्तु अन्तमें दुःख ही होता है; जैसे धतूरा खानेमें मीठा सा मालूम होता है, पर उससे अन्तमें हानि ही हानि होती है । इसके सिवा यह सब विषय अनित्य हैं कुछ काल ठहर कर अन्तमें सब नष्ट हो जाते है । तव उत्तम पुरुषोंको उचित है कि वे इन्हें पहले से ही छोड़ दें। क्योंकि इनके त्याग से और तो क्या मुक्ति भी मिल जाती है । विचारनेकी वात है कि इन विषयोंसे जब सुर-असुर आदि किसीको भी संतोष न हुआ तब मनुष्य-भवमें प्राप्त हुए जरासे विषयों में तो इस जीवको संतोष ही कैसे हो सकता है । यह समझमें नहीं आता । भला, सोचिए कि जो वडवानल सागर के अनन्त जलसे भी सन्तुष्ट नहीं हुआ वह तिनकेके अग्रभागमें लगे हुए जल - कणसे तृप्त ही क्या होगा । हे आत्मन, तूने पहले अनंत काल तक इन भोगोंको भोगा, पर तुझे तृप्ति नहीं हुई । अघ तो इनसे संतुष्ट हो । इस समय मैं तो आत्म-सुखसे सुखी हूँ, मुझे सन्तोष है और आत्मा के सच्चे सुखका अभिमान है । अत्र मुझे इस स्त्री- मेम से कुछ प्रयोजन नहीं । स्त्रीके ऊपर अनुराग करके रागी पुरुष और तो क्या अपने प्राणोंको भी खो बैठते है तथा राज-काजको भूल जाते हैं। सच हैं कि भोगोंके अधीन हो मिथ्यात्वी जीव सभी अकृत्योंको अपने कृत्य बना लेते हैं ।
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दसवाँ अध्याय ।
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देखो, स्त्रियोंका मुॅह तो श्लेष्म ( खकार वगैरह ) का खजाना है, नेत्र कीचड़ जैसे घिनावने मैलके स्थान हैं, नाक घृणाको पैदा करनेवाले दुर्गन्धित द्रव्यका भंडार हैं । दुःख है कि इस प्रकारके नारीके मुखको मूढ लोग चन्द्रमा कहते हैं, उसमें चॉदकी बुद्धि करते हैं । और है भी ठीक कि जिस पुरुपको रतौध हो जाती है उसे सीप भी चॉदीसी देख पढने लगती है । मूर्ख लोग खीके बालोंको बड़ी बड़ी सुंदर उपमायें देते है और मदोन्मत्त होकर उन पर मोहित होते हैं । एवं मांसपिंड-रूप उनके कुचको वे अमृतके घडे कहते हैं और उनमें मांसभक्षी कौओं की तरह अनुरक्त होते हैं । और तो क्या कामीजन स्त्रियोंके सघन जघनोंमें भी सुख मान कर उनमें अनुरुक्त होते हैं; जैसे विष्टा खानेवाला सूअर विष्टामें अनुरक्त रहता है, और सुख मानता है । इसलिये हे आत्मन्, तू जरा सा विचार तो कर कि इस जगमें जीवको स्त्री-संग से कहाँ ? कैसा ? और कितना सुख मिला है। इस विचार से तेरा चित्त अवश्य ही शान्त होगा; जैसे कि निर्मली आदिके निमित्तसे मैका जल निर्मल हो जाता है । पहले स्त्रीके इस शरीर को ही तो देख, यह सात धातुओं का पिंड है, नष्ट होनेवाला
पाण्डव-पुराण १८