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पाण्डव-पुराण
हृदयमें धारण करनेवाले वसुदेवको नीचे गिरनेमें सहारा दिया, ताकि वह आसानीसे चंपापुरी तालाब में जाकर पड़ा - उसे कुछ भी तकलीफ न हुई । इसके बाद वह तालाव से निकल कर चम्पापुरीमें गया । वहाँ गंधर्वदत्ताका स्वयंवर था । गंधर्वदत्ता गानविद्यामें बहुत बढ़ी चढ़ी थी । स्वयंवरका हाल सुन कर वसुदेव भी तत्काल स्वयंवर मंडप में पहुँचा । वहाँ पहुँच कर उसने गंधर्वदत्तासे कहा कि सुपण्डिते, दोष-रहित, अच्छे तारोंवाली और ठीक प्रमाणकी बनी हुई एक वीणा दो, ताकि जैसी तुम चाहती हो मैं वैसी ही उसे बजा सकूँ । यह सुन उसने वसुदेवको तीन-चार वीणायें दीं, पर वसुदेवने उन सबमें कोई न कोई दोष बता कर वापिस लौटा दीं । तव गंधर्वदत्ताने उसे घोपवती नाम वीणा दी, जो बिल्कुल निर्दोष थी । उसे लेकर कुमारने बजाना शुरू किया और बड़े अभिमान के साथ उसने जैसा कि गंधर्वदर्त्ता चाहती थी वैसा ही बजा कर सुनाया । जिससे वह बहुत ही प्रसन्न हुई और साथमें वसुदेवके ऊपर तन-मनसे निछावर भी हो गई ।
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इस प्रकार कुमारके द्वारा जीती गई अपनी कन्याका चारुदत्तने उसके साथ ब्याह कर दिया । कुमार भी इस व्याहसे अतीव प्रसन्न हुआ । एवं विजयार्द्ध पर्वत पर उस पुण्यात्माने विद्याधरोंकी और सातसौ कन्याओंके साथ विवाह किया । सच है कि पुण्यका उदय होने पर संसारमें कुछ भी मिलना दुर्लभ नहीं रह जाता । वहाँसे चल कर वह अरिष्टपुर नाम नगरमें आया । यहाँका राजा था हिरण्यवर्मा और रानी थी पद्मावती । उनके रोहिणी नाम एक पुत्री थी । वह चाँदकी रोहिणी के तुल्य थी । वहाँ उसका स्वयंवर था और देश विदेश के राजा उसमें उपस्थित थे । वसुदेव भी उस स्वयंवरमें गया और अपने योग्य स्थान पर जाकर बैठ गया । इसके बाद रोहिणी स्वयंवर - मंडप में आईं और उसने सव राजोंको छोड़ते हुए चले जाकर वसुदेवको पसंद किया और बड़ी भारी उत्कंठा साथ उसीके गलेमें वरमाला पहिना दी । यह देख उन सब राजों में बड़ा क्षोभ मचा, युद्धकलामें समुद्रके जैसे उमड़नेवाले समुद्रविजय आदि सब राजा उस समय मान-मर्यादा छोड़ कर युद्धके लिए तैयार हो गये । इधर हिरण्यवर्मा और वसुदेव भी निकल कर मैदानमें आ डटे । इस समय समुद्रविजयको अपना परिचय देनेकी इच्छासे वसुदेवने वह वाण चलाया जिस पर वसुदेवका नाम लिखा था । उस बाणको देख कर समुद्रविजयने उसी समय युद्ध बन्द करवा दिया । इसके बाद वह अपने सब भाइयों सहित वसुदेवसे
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