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तेरहवाँ अध्याय ।
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भाँति भाँतिकी सम्पत्ति द्वारा आधे आधे राज्यको भोगते हुए पांडव और कौरव एक समय सभा भवन में बैठे हुए थे । इस सम्बन्धमें यह जान लेना आवश्यक है कि पांडव वड़े चतुर और विद्वान थे । वे समयकी कदर करते थे और लक्ष्मीसे युक्त थे । अतः आधे राज्यको संभालते हुए सुखसे अपना समय बिताते थे । परन्तु कौरवोंका स्वभाव इनसे बिल्कुल ही विपरीत था । वे हमेशा दूसरोंकी सम्पत्तिको देख कर जला करते थे । उनका अदेख-सखाभाव वडा मल था । मजा उनसे असंतुष्ट रहा करती थी । वे सूरजको दोष देनेवाले उल्लूकी नॉई सत्पुरुषों को दोष देते थे । अतः वे दुष्ट आपसकी सन्धि तोड़नेके लिए तैयार हो गये और उन अन्यायियोंने खुल्लमखुल्ला कह दिया कि हम सौ भाई है और ये केवल पॉच ही है; फिर आधे आधे राज्यको कैसे भोग सकते हैं—- यह सरासर अन्याय है | चाहिए तो ऐसा कि कुल राज-पाटके एक सौ पाँच भाग किये जाये और इन्हें पाँच तथा हम लोगोंको सौं भाग दिये जायें। भला, विचार कर तो देखिए कि पॉच के लिए आधा राज्य और उनसे बीस गुने लोगों के लिए भी उतना ही राज्य ! यह अन्याय नहीं तो और क्या है ? इस तरह दोषोंके भंडार और मन ही मन युद्ध करने को तैयार उन दुष्ट दुर्योधन आदिने परस्पर के प्रेम सूत्र - को तोड डाला ।
दुर्योधन आदिकी ऐसी विपथरी बातों को सुन कर यद्यपि पांडव पण्डित थे और वैर-विरोध दूर थे तो भी - भीमसेन आदिको घड़ा क्रोध आया और भौहें चढ़ जाने से उनके मुँह भीषण हो गये । वे आवेश-वश इधर उधर घूमने लगे, जिससे अचला ( पृथ्वी ) भी हिल गई । इसके बाद वे बोले कि हमेशा ही सति रहनेवाले और कौओंकी नॉई दीन ये विचारे हम सरीखे शक्तिशाली पुरुषों के होते हुए भला कर ही क्या सकते हैं ! और यह बात कुछ छुपी नहीं, स्वयं वे भी जानते हैं ।
भीमने कहा कि भाई युधिष्ठिर, यदि आपकी आज्ञा हो तो इन दुष्टोंको अभी क्षणभर में ही भस्म कर दूँ। क्योंकि आगका एक छोटासा कण भी धधक कर बड़े बड़े जंगलों को जला डालता है । या कहो तो हीन विचारवाले इन सौके सौको ही एकदम उठा कर समुद्र में फेंक दूँ और इनका काम तमाम कर दूँ ।
भीमको इस तरहसे क्रोधित देख कर युधिष्ठिरने उसे मधुर वचनों द्वारा शान्त किया, जिस तरह कि जलती हुई आग पानीसे ठंडी की जाती है । और जिस