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पाण्डव-पुराण। राजभार और घर-गिरस्तीका भार सौंप कर संन्यासं धारण करनेके लिये-ना करने पर भी-घरसे निकल पड़ी और गंगा किनारे पहुँची । वहाँ उसने आहारपानका त्यागकरं संन्यासको ग्रहण कर लिया । उसने दर्शन, ज्ञान, चारित्र -
और तप इन चार आराधनाओंकी आराधना की । तपके तेजसे उसके दोनों नेत्र विल्कुल भीतरको घुस गये थे, जान पड़ता था कि मानों भूखके भयसे ही ऐसे हो गये हैं । ठीक ही है, कायरोंकी ऐसी ही गति होती है। उसका अंगभंग हो गया थी, इन्द्रियाँ श्री-रहित हो गई थीं। अन्त समय उसके प्राण अपने पतिदेव पांडुके साथ ही उड़ गये और उसी प्रथम स्वर्गम वह सौंदर्य आदि शुभ गुणोंकी खान देवी हुई। सच है, जब पुण्यका उदय होता है तव सब कुछ आ मिलता है; फिर स्वर्ग मिलनेकी तो बात ही क्या है।
इधर शोकसे पीड़ित कुन्तीने जब पांडुकी मृत्युका हाल सुना तब वह बहुत ही विलाप करने लगी । उसके मुंहसे आहे पर आहे निकलने लगी । वह विल्कुल ही बेचैन हो गई है। इसके बाद वह गंगा-तट पर गई और वहाँ विलाप करती हुई अपने वालोको लोच लोंच कर फैंकने लगी । उर:स्थलमें पड़े हुए मणि-मुक्ताफलोंसे जड़े सोनेके हारको तोड़कर फैंकने लगी । हाथोंको इधर उधर फटकारनेके कारण उसके कंकणं टूट गये । वह शोकसे अत्यन्त विह्वल हो गई । इस तरह दुःखसे पीड़ित होनेके कारण उसे कुछ भी अपना कर्तव्य न सूझ पड़ने लगा। वह किंकर्तव्यविमूढ़सी हो गई । वह विलाप करने लगी कि हा नाथ, हा मिय, हा जीवनाधार और हा कौरव-वंश-रूप आकाशके सूर्य, तुम मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ! अब मैं तुम्हारे विना कैसे जीऊँगी। हा सब दुःखोंको हरनेवाले और शुभ कार्योंको करनेवाले वीर, तुम मेरे दुःखोंको क्यों नहीं इरते और अपनी अब वीरता क्यों नहीं दिखाते ! हा चाँद जैसे मुंहवाले
और सवको सुहावने, तुम मेरे संतप्त हृदयको शान्ति क्यों नहीं देते ! हा कुंडलों 'द्वारा विभूषित कानोंवाले और सोनेके जैसी कान्तिके धारक, आप अब मेरे चित्तको प्रसन क्यों नहीं करते ! हा अपने स्वरसे उत्तमसे उत्तम वीणाके स्वरको भी नीचा दिखानेवाले, मेघके समान गंभीर नाद करनेवाले, शंखके जैसे कंठवाले और कोयलके जैसे स्वरवाले, अब आप मुझे दर्शन क्यों नहीं देते और अपने सुन्दर स्वरको क्यों नहीं सुनाते ! हे दुर्वार वैरियोंको भी कुंठित कर . उनके कठके भूषण वननेवाले, विस्तर्णि वृक्षास्थलसे जगत भरमें अपनी- कीर्तिको विस्तृत करनेवाले, आप,मुझ दुःखिनीके दुःखको दूर कर मेरे कंठके भूषण