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दसवाँ अध्याय |
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क्यों नहीं होते और अपनी कीर्तिकी गंध मुझ तक क्यों नहीं आने देते ! प्रभो, आप मुझ दुःखिनीको छोड़कर कहाँ चले गये । आपके बिना अब संसारमें मुझे) कौन मान देगा - मेरा कौन आदर करेगा - मुझे कौन आदरकी दृष्टि से देखेगा। नाथ, तुम्हारे बिना यह महल सूना हो गया है, अब शोभा नहीं पाता। भला, इसे एक चार तो फिर सुशोभित कर दीजिए । स्वामिन्, तुम्हारे बिना मैं अत्यन्त दुःखी हो गई हूँ । मुझे कुछ कर्तव्य ही नहीं सूझ पड़ता। मुझे ऐसा भान होता है कि मानों आज आकाशको भेदकर मेरे मस्तक पर वज्र ही आ पड़ा है । मेरे शरीर पर दुष्ट जलानेवाली आग ही छोड़ दी गई हैं। मुझे बड़ा खेद है । नाथ, बताइए कि तुम्हारे बिना अब मैं यहाँ क्या करूँ; कैसे अपना समय बिताऊँ । हे अमृतवत्सल, तुम्हारे बिना कामसे पीड़ित हुआ मेरा शरीर जला जाता है । मैं कहीं भी जाती हूँ, पर मुझे जरा भी सुख-शान्ति नहीं मिलती । इसलिए हे पुरुषोत्तम, मुझ पर प्रसन्न होकर मुझसे एक वार प्रेम भरे शब्दों में बोलिए । तुम्हारे बिना न तो मुझे भोजन रुचता है और न पानी ही । प्रभो, ऐसे उत्तम और सब तरह से परिपूर्ण राज्यको छोडकर तुमने यह क्या किया | महामिय, तुमने मुझे ऐसी दुःख-मय अवस्थाको ही क्यों दिखाया । देखिए तो, तुम्हारे बिना तुम्हारे ये पवित्र पुत्र क्या करेंगे, किससे शिक्षा पायेंगे और किसके पास जाकर प्रसन्न होंगे । धराधीश, मै आपके विना धीरज कैसे धरूँगी । भला, कहीं तृक्ष के बिना बेल निराधार रह सकती है । शुभाफर, जरा सोचिए तो, कि तुम्हारे विना अब यह आपकी वल्लभा शोभा कैसे पायगी । क्या चॉदके बिना भी कहीं रातकी शोभा होती है । देव, तुम्हारे विना मुझ विरस - शृंगार आदि विहीन का आदर ही कौन करने चला । क्या कहीं कोई विरस - जल-विहीन - सुखे सरोवरको भी आदरकी दृष्टिसे देखता है । सच तो यह है कि पति के बिना स्त्री कहीं भी चैन नहीं पाती; जैसे कि मणियोंके बिना हारलता सुशोभित नहीं होती । कुन्तीके इस तरह रोने-विलपने को सुनकर कौरव भी विलाप करने लगे । युधिष्ठिर आदिके मुॅह आसुओंसे भींग गये । वे विलाप करने लगे देव, यह उत्तम राज्य जिसे आपने छोड़ दिया है, अब आपके विना बिल्कुल शोभा नहीं पाता; जिस तरह कि चाहे कितना ही सुस्वादु भोजन क्यों न हो, पर वह नमकके बिना अच्छा नहीं लगता । देव, जब कि हमें आपने ही छोड़ दिया तब अव हमारी शोभा होना असम्भव ही सा है । क्या कहीं विना दॉतोंके हाथियोंकी शोभा होना सम्भव हो सकता है । और जिस तरह बिना दाँतोंके हाथियोंकी राजा- गण कदर नहीं करते उसी तरह वे हमारी भी इज्जत नहीं करेंगे ।
पाण्डव-पुराण १९