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प्रभो, आपके बिना यह राज्य भी तो हमारी शोभाके लिए नहीं हो सकता; जैसे राधे-रहित पुष्पोंसे किसीकी शोभा नहीं होती, उल्टी और सुषमा चली जाती है । इस तरह शोकातुर कौरवोंको विद्वान् लोग समझाने लगे कि आप लोग शोक मत करो । यह शोक जीवोंको दुःख ही देता है; इससे किसीको भी सुख नहीं मिलता । और फिर तपस्वी योगियों की मृत्यु पर शोक करना तो बिल्कुल ही व्यर्थ है। कारण, वे मृत्युके प्रसादसे परलोकमें जा उत्तम गतिके उत्तम सुख पाते हैं । इस प्रकार युधिष्ठिर आदिके शोकको वारण कर कौरव-वंशके भूषण वे लोग नगरको वापिस चले आये ।
पाण्डव-पुराण ।
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इसके बाद इस महान देशका राजा धृतराष्ट्र देश-विद्रोहियोंको देशसे निकाल कर महेन्द्रकी भाँति आनन्द के साथ राज्य करने लगा । वह हमेशा गांधारी के मुख कमलकी गंधमें लुब्ध रहता था; जैसे भौंरा कमलकी गंध पर लुब्ध रहता है । और वेलमें जिस भाँति पुष्प-समूह संलम रहता है उसी भाँति वह गॉधारीमें संलग्न रहता था। वह अपने सौ पुत्रोंको शिक्षा देता था, उन्हें राजनीति, सुनीति और देश-वत्सलताका पाठ पढ़ाता था । एवं प्रचंड और अखंड धनुषविद्या के पंडित पांडव-गण भी संकट रहित सुख-चैनसे वहाँ निवास करते थे । उन्हें किसी भी प्रकारकी कोई तकलीफ न थी । उनके शरीर की सोनेकीसी आभा थी । उनके साथमें सदा ही गांगेय रहा करते थे । पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि सभीके वे पालक थे । शत्रुओंको त्रासदेने में अति प्रवीण द्रोणाचार्य उनके पक्षमें थे। और वे पाँचों ही पवित्र पांडव - धनुषविद्या में निपुण थे ।
उसे फल-पुष्प आदि
एक वार धृतराष्ट्र वन-क्रीड़ाको गया । उस समय बड़ा भारी कोलाहल हुआ; जिससे दशों दिशायें गूँज उठीं स्वामी भीलोंने खूब स्तुति की और सुख-लाभकी बाछासे भेंट किये। वहाँ लोकपालोंके अधीश धृतराष्ट्रने शोकको दूर करनेवाले अशोक नामके एक वृक्षको देखा । वह ऐसा जान पड़ता था मानों दूसरा लोकपाल ही है । वहाँ पर उसकी दृष्टि एक स्फटिककी— दर्पण के जैसी निर्मलशिला पर पड़ी । वह सिद्धशिला सी देख पड़ती थी । उसके मध्यभागमें जाकर बहुतसे वृक्षोंका - प्रतिभास पड़ता था और वह भींतमें लिखे हुए निर्मल चित्रोंका भ्रम कराता था । उसके ऊपर एक मुनीन्द्र विराजे हुए थे । वे धीर थे, निर्मल थे, गुणोंके भंडार थे, विपुल ज्ञानवाले थे, विशुद्ध और चैतन्यमूर्ति थे । बड़े बड़े गण्य-मान्य पुरुष उनकी वन्दना स्तुति करते थे । वे परिग्रहके संसर्गसे रहित थे ।
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दुंदुभियोंके शब्दोंका
। वहाँ उसकी बनके