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________________ mmunniner wimmmmmm दसवाँ अध्याय । १४७ raamwwwwwwwwwwwwwmmmm उनके पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह न था। वे सिद्धशिला पर बैठे हुए सिद्ध भगवानसे जान पड़ते थे । राजाने देखते ही उन्हें नमस्कार किया और उन्होंने राजाको धर्मवृद्धि दी। इसके बाद राजा स्थिर चित्त हो वैठ गया । मुनि बोले कि राजन्, देखिए इस संसार-वनमें भटकते हुए जीवोंको कहीं भी सुख-साता नहीं मिलती-उन्हें हमेशा जन्म-मरणके चक्करमें ही. पड़ा रहना पड़ता है । जिस तरह समुद्रमें कल्लोलें उठती और विनसती रहती हैं, उसी तरह संसारमें जीव भी मरते और जन्मते रहते हैं । परन्तु जो जीव अज्ञानी हैं वे मोहके वश हो कहीं सुख और कहीं दुःखकी कल्पना कर लेते हैं । पर सचमुच ऐसा नहीं है। किन्तु संसारमें तो सब जगह दुःख ही दुःख है-सुखका लेश भी कहीं नहीं है । हे विद्वान् राजन्, तुम विचार कर तो देखो कि जगत्के जीव हमेशा ही सुख-साताके लिए दौड़ते फिरते रहते है और हमेशा ही उसके लिए उद्यम भी किया करते हैं; परन्तु वे कहीं भी सुख नहीं पाते; जिस तरह मरीचिकाको देखकर विचारा मृग जलकी आशासे दौड़ता फिरता रहता है, पर वह कहीं भी जल नहीं पाता। यह किसका प्रभाव है ? मोह हीका है न ? राजन्, यह सम्पत्ति वगैरह कोई भी चीज जीवोंको सुख देनेवाली नहीं है । जिसके लिए ये जीव व्यर्थ ही लड़ते और झगड़ते हैं । अज्ञानी जीव स्पर्शन इन्द्रियके वश हो बड़े कष्टोंको प्राप्त होते हैं । उससे उन्हें सुख नहीं मिलता; जिस तरह वनमें कागजकी हथिनीको देख, स्पर्शन इन्द्रियके वश हो, हाथी गढ़ेमें पड़ जाता है, और उसे सुख नहीं मिलता। इसी तरह रसना इन्द्रियकी लंपटतोसे भॉति भाँतिके स्वादोंको चखकर जीव सुखी होना चाहते है, परन्तु सुखी न होकर वे उल्टे कॉटेके मांसको निगल जानेवाली मछलीकी नॉई दुःखी ही होते हैं। और तो क्या कभी कभी अपने प्राणोंको भी खो बैठते हैं । बहुतसे भोले-भाले अज्ञानी पुरुष मनोहर सुगन्धको सूंघ कर, कमलकी गंधसे उन्मत्त हो जानेवाले मौरेकी नॉई उन्मत्त हो जाते हैं और मर जाते हैं । प्रसिद्ध है कि भौंरा कमलमें गंधके लोभसे वैठ जाता है और शाम तक बराबर लुब्ध होकर उसीमें बैठा रहता है और आखिर जव कमल सिकुडने लगता है तब वह उसीमें बैठा रह जाता है और प्राण गवॉ देता है । इसी तरह गंधके लोलपी पुरुष भी अपने प्राणों को व्यर्थ ही गवॉ बैठते हैं । नेत्रोंसे स्त्रीके सुन्दर रूपको देखकर पुरुष लुमा जाते हैं और अन्तमें दुःखका भार उठाते हैं, जैसे दीपक या आगमें पंखी लुभाकर गिरते हैं और जलकर खाक हो जाते हैं । इसी प्रकार कानोंसे मधुरै गीत सुनने
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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