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________________ १४८ पाण्डव-पुराण | की लालसाको प्राप्त होकर मनुष्य विपत्तिके पंजे में जा पड़ते हैं और फिर वहाँसे उन्हें छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है; जैसे हरिण व्याधके गानेसे मोहित हो अपने प्राणोंको खो बैठते हैं । मुनिका यह पवित्र उपदेश सुनकर धृतराष्ट्र ने पूछा कि स्वामिन्, कौरवोंके इस विशाल राज्यको धार्तराष्ट्र- दुर्योधन आदि - भोगेंगे या पांडव-गण । प्रभो, यह तो मैने कान देकर सुना कि जो कुछ पदार्थ दीख रहे हैं या जो प्यारे, उत्कृष्ट और विशिष्ट है वे सभी नष्ट होंगे, यह बात बिल्कुल सच्ची है । क्योंकि वस्तुका स्वभाव ही नाश होना है । और यह भी सुना है कि पहले बहुत से सत्पुरुष जो सव पदार्थोंके ज्ञाता हो गये हैं वे भी सव कालके ग्रास हुए । और जो वर्तमान में सुन्दर सुन्दर पुरुष देख पड़ रहे हैं वे भी कालके ग्रास बनेंगे । भावार्थ यह है, कि इस भूतल पर कोई भी वस्तु या मनुष्य स्थिर नहीं है । परन्तु सवाल यह है कि आगे जो महापुरुष होंगे वे थिर - अमर - होंगे या नहीं ? यह मुझे दया कर बता दीजिए। आगे पांडवोंकी कैसी स्थिति होनेवाली है और क्या आगे धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदि राजा होंगे ? हे नाथ, आप सुव्रत हैं,, योगींद्र और योग-योगांगके पारंगत है; अतः आपसे कोई भी वस्तु छिपी नहीं- आप सब कुछ जानते हैं । " - मुनि बोले- मगध नाम एक देश है। वह पंडितों बुधों का निवास और रंभाओं नारियों से विभूषित है, अतः वह बुधों — देवतों और रंभाओं — देवगनाओं-से विभूषित स्वर्ग- लोकसा जान पड़ता है । ऐसा जाना जाता है कि मानों वह दूसरा स्वर्गलोक ही है । उसमें एक राजगृह नाम नगर है । वहॉ राजों के राजा राजराज — के ऊंचे महल बने हुए हैं और उसमें धनद - धनको देनेवाले दानी -और अमर - दीर्घजीवी लोग निवास करते हैं । अतः वह अमरावतीकी बराबरी करता है; क्योंकि वहाँ भी राजराज इन्द्र के बड़े ऊँचे महल बने हुए हैं; और उसमें भी धनद - कुबेर -- और अमर रहते हैं । वहाँका राजा है जरासंध | उसे सभी राजा गण मानते है । वह मान-मत्सर से रहित है, नौवाँ प्रतिनारायण है । उसकी रानीका नाम है कालिदसेना । उसका रूप यमुना नदीके जळकी नॉई नीला सा है । उसका शरीर विशाल और लक्ष्मीके जैसा शोभासे व्याप्त है । जरासंघके अपराजित आदि कई भाई हैं। वे अपराजित और उद्योगी हैं । कालयवन आदि विनयी उसके पुत्र हैं । वे नीतिवाले और सुकाल आदिके समान हैं । इस तरहसे वह राजगृहका स्वामी जरासंघ राजसिंह सा सुशोभित होता है। भूचर, खेचर आदि सभी उसकी सेवा करते हैं। उसने सारे
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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