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पहला अध्यार्य। कारणको पाकर वे विरक्त हो गये और उन्होंने अपने विरक्त होनेका समाचार अपने कुटुम्बी भाई-बन्धुओंको कह सुनाया। ____ इसके बाद भगवानको विरक्त हुए जान कर अपना नियोग पूरा करनेको पॉच ब्रह्म स्वर्गसे लौकान्तिक देव उनकी सेवामें आ पहुंचे और वे उनके वैराग्यकी प्रशंसा तथा भक्ति कर चले गये । पीछे थोड़ी ही देरमें इन्द्र आदि देवता-गण आये और उन्होंने प्रभुको भक्तिभावसे नमस्कार किया-उनकी स्तुति और पूजा की। इस समय प्रजा असीम आमोद-प्रमोदमें मस्त थी । वाद इन्द्रने भगवानको स्नान फरा कर दिव्य-वस्त्र और आभूषण पहिनाये और भक्ति-भारसे नम्र हो उन सक्ने भूतल-भूपण भगवानकी फिर पूजा-स्तुति की तथा मुक्त कंठसे उनके वैराग्य और विचारोंकी प्रशंसा की । इसके बाद वे भॉति भॉतिके चित्रोंसे चित्र विचित्र और रंग-विरंगी तरह तरहकी कलशियोंसे विभूषित चन्द्रप्रभा नाम एक सुन्दर पालकीमें श्री चीरमभुको विराजमान कर नगरसे बाहर उद्यानकी
ओर ले गये । वहाँ कोकोत्तम वीर भगवानने अगहन वदी दसमीके दिन, हस्त नक्षत्रमें, पष्ठ योगके वाद, दो पहरके समय, जिन दीक्षा धारण की और उसी समय वे चार ज्ञानके धारक हो गये। उन्हें मनापर्यय ज्ञान हो गया।
इसके बाद वीरमभुने सभी देशोंमें विहार कर बारह वर्ष घोर तप किया। वे जहाँ जहाँ जाते थे वहाँ उन्हें लोग बड़ी भक्तिसे पारणा कराते थे। आलस और विपय-वासना तो उनके पास तक न फटक पाते थे।विहार करते करते कुछ दिनोंके बाद भगवान जंभिका नाम एक गॉवमें आये । उसमें वहनेवाली ऋजुकूला नाम नदीके किनारे तालका एक घना जंगल था। भगवान उस जंगल में एक वृक्षके नीचे रक्खी हुई पवित्र शिला पर ध्यानस्थ हो गये । इसके बाद भगवान वैशाख सुदी दसमीके दिन, दो पहरके समय, पष्ठ योग और हस्त नक्षत्र, क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए । और अन्तर्मुहूर्त कालमें ही उन्होंने दुष्ट घाति-कर्मोंकी सैतालीस, आयुकर्मकी तीन और नामकर्मकी तेरह-कुल तिरेसठ-कर्म-प्रकृतियोंका नाश कर सब पदार्थों और उनकी अनंत पर्यायोंको एक साथ हमेशा जाननेवाले केवल-ज्ञानको प्राप्त किया।
इसके बाद वीर भगवान सारे संसारमें धर्मका उपदेश करते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये । इस समय समवशरण उनके साथ ही था । उसकी विभू'तिका कोई ठिकाना न था।छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल, (शरीरकी कान्तिका
पाण्डव-पुराण २