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________________ 7 7 t तेवीसवाँ अध्याय | ३६१ दुष्टात्मा हो, अतः तुम्हारी जड़ता नहीं जाती । अब तुम लोग यहाँसे सौ योजन दूर जाकर चिरकाल तक दक्षिण मथुरा में रहो । यहाँ तुम्हारा कुछ काम नहीं है । कृष्णके इन वचनों से पांडवोंको बड़ा दुःख हुआ । वहाँसे वे हस्तिनापुर चले गये । कृष्णने तव वहाँका राज्य सुभद्राके पौत्र, विराट राजाकी पुत्री उत्तरा देवी से पैदा हुए अभिमन्युके पुत्र पारीक्षित को दिया। इसके बाद कृष्ण द्वारावती चले आये । और उद्धत पांडव मातृकान्त आदि पुत्रों सहित दक्षिण मधुरा चले गये । द्वारावती में एक दिन नेमिनाथ भगवान और कृष्ण राजसभामें विराज रहे थे । बलके महत्व पर चर्चा छिड़ी कि दोनोंमें कौन अधिक बलवान् है । उस समय I वहाँ नेमिनाथ स्वामीका वल लोगोंने कृष्णसे कम वताया । यह देख नेमि प्रभुने अपना वल वतलाने के लिए कृष्णको अपनी उँगली सीधी कर देने के लिए कहा । कृष्ण उँगली पकड़ कर उसे सीधी करने लगे, पर वे कर नहीं सके। प्रभुने विनोदमें उन्हें ऊपर उठा लिया । कृष्ण एक दम लटक गये और नेमिनाथ उन्हें झुलाने लगे। इससे कृष्णने अपना अपमान समझा । और इसका फल यह हुआ कि अव कृष्ण नेमिनाथ स्वामीकी तरफ से राज-काज से उदास हो गये । इसके बाद एक दिन जलक्रीड़ाके समय नेमिनाथ प्रभुने कृष्णकी रानी जाम्बूवतीसे अपना कपड़ा निचोड़ देनेके लिए कहा । उस समय अभिमानमें आकर उसने नेमि जिनेश्वरकी बात पर कुछ ध्यान न दिया । वहॉसे नेमि प्रभु कृष्णकी शस्त्रशालामें गये । वहाँ जाकर प्रभु नागशय्या पर लेट गये । फिर उन्होंने साई नाम धनुष चढ़ाया और नाकके द्वारा पॉचजन्यको शंखको पूरा | शंख के शब्दको सुनते ही वहाँ कृष्ण आये और उन्होंने नेमि प्रभु के चरण-कमलोंको नमस्कार कर उनके बलकी बड़ी तारीफ की। मौका देख कर उन्होंने प्रभुसे व्याहके लिए भी प्रार्थना की। इसके बाद कृष्णने नेमिनाथके लिए उग्रसेनसे, जायावती रानीके गर्भ से पैदा हुई राजीमती नाम पुत्रीकी याचना की । राज्यके लोभसे कृष्णने यह प्रपंच रचा कि नेमिनाथ प्रभु किसी तरह विरक्त हो जायें । वारात आनेके दिन कृष्णने मार्गमें जगह जगह बहुत से पशु बंधवा दिये । विवाहके अर्थ जाते समय उन बँधे हुए पशुओं देख कर नेमिनाथ प्रभुने : उनके रखवालोंसे पूछा कि ये पशु काहेके लिए घेरे गये है। उन्होंने उत्तर दिया कि वारातमें जो मांसभक्षी लोग भाये हैं उनके अर्थ ये वध किये जायेंगे । बस यह सुनते ही नेमिनाथ विरक्त हो गये । रागसे उनका आत्मा बहुत अधिक दूर हट गया । वे बारह भावनाओंका विचार करने लगे। फिर क्या था, नियोग वश तत्काल ही लौकान्तिक देव आये और उन्होंने मनुके वैराग्यकी बड़ी भारी प्रशंसा की । पाण्डव-पुराण ४६
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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