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________________ छठा अध्याय । कुंभी सेवा करता है। श्री आदि देवियाँ हमेशा ही श्रीकान्ताकी सेवामें उपस्थित रहा करती थीं और उसके सभी काम-काज करती थीं । सच है कि पुण्यके योग से कोई भी वस्तु दर्लभ नहीं रह जाती । अचम्भेकी वात तो यह है कि धीरवीर और धनका मेघ - कुबेर उसके ऑगनमें जलकी नॉई रत्नोंकी चरसा करता था । उस समय रत्नोंकी वरसासे सारी पृथ्वीमें धन ही धन हो गया था । कहीं भी कोई दरिद्री न था और पृथ्वीका वसुधा नाम सफल हो गया था । के गर्भात्सव के समय ऐसा कोई भी काम न हुआ जो जीवको प्रमोदका देनेवाला न हो । - AAAA एक दिन श्रीकान्ता सुखकी नींदमें सोई हुई थी । रातका पिछला पहर था । उस समय उस देवीने मोलह स्वमको देखा । मनुष्यों को पालने पोपनेवाळी वह सवेरे भाँति भाँतिके वाजोंकी आवाजको सुन कर सेजसे उठी । इस समय उसके हृदयमें बडा हर्ष हो रहा था । उसने प्रभातकी नित्य क्रियायें कीं, स्नान किया तथा वत्र, मंगल-रूप आभूषण आदि पहने और सभा पहुँची । उस समय सभा ऐसी शोभने लगी जैसा कि विजलीसे आकाश सुशोभित होता है । वहाँ वह राजाको नमस्कार कर आधे सिंहासन पर जाकर बैठ गई और विश्वाधाओंको हरनेवाले उन स्वप्नोंको उसने जैसाका तैसा राजासे कह दिया | उन्हें सुन कर राजाने अवधिज्ञान द्वारा उनका फल जान लिया, और क्रमसे होनेवाले उनके फलको रानीसे कह दिया। उस समय राजाके वचन-रूप किरणोंके स्पर्शसे रानीका मुख कमल खिल उठा; जिस तरह सूरजकी किरणों संसर्गसे कमल खिल जाते हैं। इसके बाद सावन वदी दसमीके दिन रानीने सर्वार्थसिद्धि से चय कर आये हुए एक देवको देवियों द्वारा शोध हुए अपने गर्भ में धारण किया। प्रभु के गर्भ समयको जानकर देवतों सहित ज्ञानी इन्द्र आया और उसने गर्भास की खूब ही धूम मचाई - चहल-पहल की । मुक्ताफलको धारण करनेवाली निर्मल सीपकी नई श्रीकान्ता मञ्जुको गर्भमें लिये हुए बड़ी शोभा पाती थी । उस समय उसका शरीर तेज-मय हो गया था, परन्तु उसको गर्व रंचमात्र भी न था । सुन्दरी देवांगनायें उसकी हमेशा सेवा करती थीं और वह सेवाके फलको देती थी अर्थात् उसकी सेवासे उन्हें स्वयमेव ही फल मिलता था । देवियाँ उससे काव्योंका गूढ़ गुढ़ अर्थ पूछती थीं कि देवी ! संसारमें सार क्या है ? सुख किसे कहते हैं? और जीवों को सुख-दुःख देनेवाला कौन है ? | एक बात यह है कि इन प्रश्नों के ऐसे उत्तर बताइये, जिनका कि पहला अक्षर ही भिन्न भिन्न हो और सब अक्षर एक ही हो । रानीने उत्तर दिया कि संसारमें धर्म सार है। शर्म कल्याण को सुख पाण्डव-पुराण १२
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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