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पाण्डव-पुराण
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छठा अध्याय ।
-oporroroउन कुंथुनाथ भगवानको प्रणाम है, जो कुंथु आदि जीवोंकी रक्षा करनेवाले
और भव्य-जीवोंको उत्तम मार्गमें लगानेवाले है। उनके हितैषी हैं ।
शान्तिनाथ प्रभुके बाद कुरुवंशमें उनका पुत्र श्रीमान नारायण नाम राजा हुआ। इसके बाद शान्तिवर्द्धन और उसका पुत्र शान्तिचन्द्र नाम राजा हुआ। इनके वाद चन्द्रचिन्ह और कुरु राजाने इस वंशको आभारी किया । एवं इन राजोंके बाद इस वंशमें और और बहुतसे राजा हुए । इसके बाद सूरसेन नाम एक प्रतापी राजाने इसकी शोभा बढ़ाई । उसके समय सब जगह नीतिसे काम लिया जाता था । कहीं भी किसीको ईति भीत नहीं सताती थी। तात्पर्य यह कि वहॉ इति भीति नहीं थी, जैसे दिनमें तारा-गणका नहीं होते। वह शूर था, शूरवीरोंका स्वामी था । उसकी हजारों शूरवीर सेवा करते थे । उसके शरीरकी आमा सूरजकी प्रभासे कम न थी । उसका इतना बढ़ा चढ़ा पराक्रम था कि बड़े बड़े शूरवीर भी आकर उसका आश्रय लेते थे। उसके प्रतापसे शत्रुराजा अपने अपने नगरोंको छोड़ कर वनमें जा छिपते थे और वहॉ चे शय्याके बिना ही गुफाओंके अंधेरेमें सोते थे । उसकी भार्याका नाम था श्रीकान्ता । उसका शरीर लक्ष्मीके शरीर जैसा था । वह लक्ष्मीके साथ तुलना करती थी। लक्ष्मी समुद्रसे पैदा हुई है । वह गुणोंके समुद्रसे पैदा हुई थी। लक्ष्मीका अपने भाई चाँदके समान मुख था । इसका भी चाँद जैसा मुख था । लक्ष्मी सारे संसारको आनंद देती है । यह भी जगतभरको आनंद देनेवाली थी। श्रीकान्ताके नख बड़े सुन्दर थे; जान पड़ता था कि मानों इसके नेत्रोंके तारों द्वारा जीते गये और इसके गुणों द्वारा खींचे गये तारा-गण ही हैं, और सुखी होनेकी इच्छासे दे नखोंके छलसे इसकी सेवा करते हैं। इसके मुख-रूपी चन्द्रमाको देख कर कमल बहुत ही लज्जित हुए, अतएव वे छाया आदिके विना ही जलमें रहने लगें तथा जान पड़ता है कि इसीसे चन्द्रमा और कमलोंमें परस्पर विरोध हो गया है। इसके गलमें चमकीला और मनोहर हार पड़ा हुआ था, जो कुचोंके बीचसे लटकता था। जान पड़ता था कि जैसे पूर्व भवके रागभावके कारण निधिकी इच्छासें सॉप धनके खजाने पर बैठ जाता है उसी तरहसे यह हार भी-निधि-शोभाकी इच्छासे इन कुचरूपी महान