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पाण्डव-पुराण। रची थी। कुवेरने नगरीके चारों ओर चमकते हुए रत्नोंका विशाल कोट और कोटमें सुन्दर थंभोंवाले दरवाजे बनाये थे और उसके चारों ओर खाई खोद दी थी। उस नगरीके भीतर देवतोंने प्रभुके वन्धु यादव राजोंके लिए सुन्दर महल बनाये और अन्य जनोंके लिए मकान वगैरहकी रचना की थी । कुवेरने कहीं तालाव, कहीं वावड़ियाँ और कहीं श्री जैनमन्दिरोंकी रचना की थी। वह नगरी समुद्र-रूप खाईसे वेदी हुई थी और नाना दरवाजोंसे युक्त थी । इस लिए उसकी द्वारिका नामसे प्रसिद्धि हुई । वह इन्द्रपुरीके जैसी देख पड़ती थी । बल्कि वह अपनी सम्पत्तिसे उसको भी नीचा दिखाती थी । वहाँ देवतोंके बनाये हुए महलोंमें समुद्रविजय आदि यादव राजा कृष्ण सहित आनंद-चैनसे रहते थे। वहाँ सुखपूर्वक रहनेवाले समुद्रविजयकी अपूर्व ही शोभा थी । वह विजेता था, किसीके द्वारा जीता नहीं जाता था, जितेन्द्रिय और मान-मत्सर-रहित था, विशुद्ध था, धर्मबुद्धि था, धीर था, विद्वान् था, देवता-गण द्वारा सेवित था, संतोषी था, धर्म-कर्ममें लीन था, समृद्धिशाली था, पृथ्वीका पति था, भोगी और भव्यात्मा था, संसारके शत्रु जिनदेवका पूरा भक्त था, आदर योग्य था, पृथ्वीका पालक था, और कान्तिशालियोंका भूषण था । उसकी जाया थी शिवादेवी । वह सारे संसारको आनंद और दान देनेवाली थी, चतुरा थी और निर्मल बुद्धिवाली थी। कामदेवने उसे रति समझ कर अपना आवास बना लिया था। वह रति-प्रदा थी-अपने पतिको खूब रमाती थी । वह सुन्दरियोंका भूषण थी
और ज्ञान-समुद्रके पार पहुंची हुई थी । उसका स्वर तो इतना अच्छा था कि उसके सामने कोयलका स्वर भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता था । मानों इसीलिए कालेपनेको स्वीकार कर विचारी कोयले वनमें जाकर. रहने लगी हैं;
और है भी ठीक कि दूसरों द्वारा जीते गये हुओंकी ऐसी ही गति होती है। . ___उसके चरण-कमलोंको देख कर कमलोंको इतनी लज्जा हुई कि वे जाकर जलमें रहने लग गये । सच है कि लज्जाके मारे ही लोग जड़ोंकी संगति करते हैं; जैसे कि कमलोंने जड़ (जल) की संगति की है । उसके उरुस्थल केलेके थंभोंकी नॉई सरस और कोमल थे । वे ऐसे जान पड़ते थे मानों कामदेवके महलके लिए सुस्थिर खंभे ही बनाये गये हैं । उसकी नाभि बहुत ही गंभीर (गहरी) थी, कान्तियुक्त और सुहावनी थी । वह सरसी (तलइया) की समता करती थी । सरसीमें जल होता है, उसमें लावण्यरूप जल था ।