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________________ ३३२ पाण्डव-पुराण'। द्रोण लौट गये और अब अकेला अर्जुन ही अपने पराक्रमसे वैरियोंका ध्वंस करने लगा जैसे अकेला सिंह अपने पराक्रमके वलसे मतवाले हाथियोंका ध्वंस करता है । इसके बाद, गांडीव धनुषकी भीषण टंकारसे प्रलय कालके : समुद्रकी तुलना करनेवाले पार्थने दुःख देनेवाले कौरवोंकी सारी सेनाको ही भेद डाला। ___इस समय पार्थको अपनी ओर बढ़ते हुए देख कर राजे लोग कहने लगे कि द्रोणने ही जान-बूझ कर यहाँ पार्थको भेजा है । यह सेनामें प्रविष्ट हो कर बड़ा अनर्थ करेगा । इसे द्रोणका सहारा न होता तो यह कभी इधर नहीं बढ़ सकता । यह सुन कर शतायुधको वड़ा क्रोध आया और उसने उसी वक्त कृष्ण और अर्जुनको आगे बढ़नेसे रोक दिया । तब उन दोनोंने भी क्रोध आकर शतायुधके रथ, घोड़े और हाथी वगैरह सव छिन्न-भिन्न कर डाले । इसके वाद शतायुधने मन-ही-मन गदाका स्मरण किया । स्मरण करते ही वह दासीकी भॉति उसके हाथमें आ गई । यह देख कृष्णने पार्थसे कहा कि पार्थ, अब तुम्हारा कार्य सिद्ध होता नहीं दीखता । परन्तु खैर, तुम कोई चिन्ता न करो। मैं अपने बुद्धि-वळसे ही वैरीका नाश कर दूंगा । इसके बाद कृष्णने शतायुधसे ललकार कर कहा कि तुम अपनी गदा मुझ पर प्रहार करो; विलम्ब मत करो--और शस्त्रोंसे युद्ध करनेकी आवश्यकता नहीं । यह सुन चंचल-चित्त शत्रुने मन-ही-मन सोचा कि अर्जुन और कृष्ण ही इस युद्धके मूल कारण है, अतः यदि मै गदाके प्रहारसे इन दोनोंको ही कालका ग्रास बना दूं तो दुर्योधन अवश्य ही आनन्दित होगा और वह मेरा अच्छा मान करेगा । यह सोच कर उसने पहले ही कृष्णके वक्षःस्थलमें गदाका प्रहार किया । कृष्णके महान् पुण्यसे वह गदा सुगन्धसे परिपूर्ण पुष्पोंकी मालाके रूपमें परिणत हो गई और उसके हृदयकी शोभा बढ़ाने लगी। इसके बाद वह कृष्णकी पूजा करके वापिस जाकर वैरीके मस्तक पर पड़ी और उसने उसी समय शतायुधका सब गर्व उतार दिया उसे यमलोक पहुंचा दिया । यह देख कौरवोंकी सारी सेना युद्धकी इच्छासे उठ खड़ी हुई । उसे कृष्ण और अर्जुने शसेंकी प्रवल मारसे क्षणभरमें - ही तितर-वितर कर दिया। . इसके बाद कृष्णने पार्थसे कहा कि पार्थ, हम लोगोंके घोड़े बहुत प्यासे हैं, अतः अब वे मार्गको तय नहीं कर सकते । ऐसी हालतमें हमें पैदल ही शत्रुका
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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