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________________ 1 > → इकबीसवाँ अध्याय । विनाश करने के लिए सिपाहीके रूपमें युद्ध करना चाहिए । सुन कर धनंजयने कहा कि प्रभो, खंडवनमें एक देवताने मुझे महत्त्वशाली दिव्य बाण दिया था । उसके प्रभाव से मैं अभी ही गंगा के जलका प्रवाह यहीं प्रगट किये देता हूँ । यह कह कर उसने वह वाण छोड़ा और एक क्षणमें ही अनन्त कल्लोलोंसे व्याप्त गंगाका प्रवाह वहाँ जारी हो गया । उसमें उन्होंने अपने घोड़ोंको नहलाया और पानी पिलाया, जिससे वे फिर तरो ताजे हो गये । यह देख आकाशमेंसे देवतोंने कहा कि जो महा पुरुष पाताळसे पृथ्वी पर जल ले आया, फिर वे लोग कितने जड़ हैं जिन्होंने उसीके साथ युद्ध ठाना है । ये लोग इसके साथ कभी विजय नहीं पा सकते । ३३३ WU NAN www. इसके बाद ही कृष्ण युद्धके लिए उठा और साथ ही रथ में सवार हो पार्थ भी चला । कृष्णने शत्रुओं का विनाश करनेके लिए एक साथ लाख बाण छोड़े। जिनके द्वारा कौरवोंकी सेना के हाथी, घोड़े, पयादे वगैरह सब वेध दिये गये । रथ नष्ट हो गये और सेना भाग छूटी । यह देख दुर्योधनने सेनाके लोगों से कहा कि तुम लोग क्यों भाग रहे हो ? भागनेका कारण ही क्या है । क्या तुममें यही शूरता है ? यह सुन संजयन्त बोला कि राजन, क्या आपने कृष्ण और अर्जुनकी वीरता नहीं देखी जो ऐसा कह रहे हैं। उन लोगोंने आपकी सेनाको वेष डाला, दुमर्पणकी सेनाको परास्त करके भगा दिया; दुःशासन ढरके मारे उनके सामने ही नहीं आया, द्रोणको उन्होंने गुरु जान कर छोड़ दिया; युद्ध-तल्लीन कृतकर्माको मार गिराया; शिशु, दक्षिण मुख आदि राजोंको वाणसे वेध दिया; शतायुध, वृन्द तथा विदके प्राणोंको हर लिया; पातालसे वे परम पावन गंगाको यहाँ ले आये- फिर भी आप कहते हैं कि क्यों भागते हो ! राजन्, वे बड़े वीर हैं। उनकी वीरताका कोई अन्दाजा नहीं लगा सकता है । यह सुन कर दुर्योधनका क्रोध उबल उठा और वह द्रोणकी निंदा करता हुआ बोला कि द्रोण, तुमने यह क्या किया जो शत्रुको रास्ता देकर इस महायुद्ध में वैरीके द्वारा सबका अपमान कराया । तुम्हें पांडवोंका पक्ष करते संकोच नहीं होता । यही क्या तुम्हारी बुद्धिकी बलिहारी है । दुर्योधनकी मर्मवाणी सुन खेदखिन्न हुए द्रोणने कहा कि देखो, मैं पार्थके बाणसे बेधा गया हूँ, मैं उसकी बरावरी नहीं कर सका और न कर ही सकता हूँ । यह तुम ही सोचो कि कहाँ तो वह जवान और कहाँ मैं वृद्ध । फिर उसके साथ युद्ध करनेको मै कैसे समर्थ
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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