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इकबीसवाँ अध्याय।
दिया। महावीर द्रोण धराशायी हो परलोकको प्रयाण कर गये। यह देख
कौरवों और पांडवोंको बड़ा दुःख हुआ। वे विलाप करने लगे और दुःखके आवे। गसे कहने लगे कि हे परम वीर गुरु, तुम्हारे चले जानेसे आज हमारी छन-छाया
ही चली गई है। इससे संसारमें हमारी जो अपकीर्ति हुई वह हमारी सब कृति पर पानी फेरनेवाली है । अथवा हे गुरुवर्य, यह सब दुर्योधन जैसे पुरुषकी संगतिका परिणाम है । द्रोणकी मृत्युसे दुखी होकर पार्थने क्रोधके साथ युधिष्ठिरसे कहा-धृष्टार्जुन हमारा कोई नहीं होता । फिर इसने हमारे गुरु द्रोणका क्यों वध किया। यह सुन धृष्टार्जुन बोला कि पार्थ, इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है, किन्तु वात यह है कि युद्ध-स्थलमें जब घमासान युद्ध होता है तव सुभट सुभटों पर प्रहार करते ही हैं। फिर उसमें चाहे जिसका नाश क्यों न हो । वतलाइए ऐसी हालतमें मेरा क्या अपराध है। यह सुन अर्जुन शान्त तो हो गया, पर उयके हृदयमें विषाद वहुत हुआ।
___इसके बाद फिर कौरवोंकी सेना युद्धके लिए उठ खड़ी हुई और उसने , अपने रणनादसे सारे आकाशको पूर दिया तथा पृथ्वीको पद-दलित कर
डाला । इसी बीचमैं उधर युधिष्ठिरने शल्यके मस्तकको धड़से जुदा कर दिया, जिसने कि विराटके आगे अपने पराक्रमकी अद्भुतताका वर्णन कर अपना अभिमान प्रकट किया था। एवं पार्थने भी इस वक्त दिव्य-अत्रके प्रहारसे हजारों राजोंको धराशायी कर दिया था । इस समयके युद्ध में योद्धा रात-दिन युद्ध फरते । जब नींद आती तब चाहे जहाँ भूमिमें लुढ़क रहते । तात्पर्य गह कि इस युद्धमें योद्धा लोगोंको मार-काटके सिवा और कुछ काम ही न था । इस प्रकार कौरवों और पांडवोंमें प्रतिदिन भयावना युद्ध होता रहा और इस तरह युद्ध होते होते सत्रह दिन बीत गये। __ इसके वाद अठारहवें दिन प्रातःकाल ही कौरव और पांडवोंकी चतुरंग
सेना युद्ध-स्यलमें पहुंची और उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। दोनों सेनाओंमें - मकर व्यूहकी रचना हुई। उनमें मेरु जैसे उद्यत हाथी चिंघाड़ रहे थे, घोड़े हीस
रहे थे और सुभटोंकी तलवारें चमक रही थीं। इसी समय कौरव-पांडव कुरुक्षेत्रके क्षयंकर और भयंकर युद्ध-स्थलमें आये और युद्धके लिए उधत योद्धा परस्परमें मार-काट करने लगे। इस वक्त कौरवोंकी सेना समुद्रसी देख पड़ती थी । क्योंकि उसमें बाहन और हथियार वगैरह मीन-मच्छकी जगह थे और