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पाण्डव पुराण |
सती द्रोपदी पवित्र थी, बड़ी विदुषी थी, शील-सम्पतिले युक्त थी, रूपसौन्दर्यकी सीमा थी । वह उत्तम गुणोंके आकर एक अर्जुनको ही भजती थी; अन्य पांडवोंको नहीं । क्योंकि यदि वह और और पांडवों पर भी आसक्त - चित्त होती तो सती कैसे कही जाती तथा उस वंश भूषणका नाम सारी सतियोंमें पहले क्यों लिया जाता ।
इस सम्बन्ध में कोई मत पुरुष कहते हैं कि द्रोपदी दिव्य रूप- सम्पतिको पाकर कामासक्त हो गई थी, अत एव उसने पाँचों पांडवोंको अपना हृदय दिया । परन्तु यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जिन पाँचोंको वह भजती थी वे तो बड़े सुशील और निर्मल-बुद्धि थे । फिर वे कैसे एक पत्नी पर आसक्त चित्त हुए । वे तो स्वयं श्रीमान थे; उनके लिए कोई कमी नहीं थी । जब दीन, दरिद्र लोगों के भी जुदी जुदी स्त्रियाँ होती हैं तब ऐसे समझदार पाँचोंके बीच एक ही स्त्री हो यह आश्चर्य है । हम पूछते हैं कि यदि मान भी लिया जाय कि द्रोपदी पाँचों पर आसक्त थी तो क्या फिर कोई उसे सती कहने के लिए तैयार हो सकता है । नहीं, हरगिज नहीं । बुद्धिमानोंको इस पर विचार करके उसे शुद्ध और गंभीर - बुद्धि साध्वी ही कहना चाहिए । जो अपने मतके अन्ध श्रद्धालु ऐसी सतीको दोष देते हैं भगवान जाने वे पापी कौनसी दुर्गतिमें पड़ेंगे।
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जो जीव ज्ञान और सुखको देनेवाले, मोक्षके मार्ग, उत्तम पुरुषों द्वारा प्रशंसा और सेवा किये गये, अमृतका स्थान और सारे संसार में सार वस्तु शील - धर्मका आदर करता है वह कभी शोकका पात्र नहीं होता और उसे कभी क्रोध आदि कषायें भी नहीं सता सकतीं । उसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका लाभ होता है, जिससे कि उसका सारा मोह, अज्ञान और विषय-राग नष्ट हो जाता है ।
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