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________________ सत्रहवाँ अध्याये। २५७ सत्रहवाँ अध्याय। मैं उन श्री श्रेयांस भगवान्का आश्रय लेता हूँ जो कल्याण-मय है, जिन्होंने 'घातिकाको आत्मासे जुदा कर दिया है अत एव जिन्हें जिन कहते हैं, जो चाय और अभ्यन्तर लक्ष्मीसे युक्त है, आश्रितोंको श्रेयके दाता हैं और उन्नत है। वे प्रभु मुझे भी कल्याण-मार्ग पर लगावें । इसके बाद पांडव और कौरव सारे राज्यको आधा आधा बॉट कर एक दुसरेके साय स्नेह रखते हुए राज्य भोगने लगे । इसी तरह पांडव भी अपने हिस्सेके पॉच भाग कर और पाँच मुख्य स्थान नियत कर जुदा जुदा रहने लगे। उनसे शत्रु-विजयी, स्थिर-चित्त युधिष्ठिर इन्द्रमस्य ( देहली ) में रहते थे । गंभीराशय भीमसेन वहीं देहलीके पास ही तिलपथ पुरमें रहते थे । नीति-निपुण और विचारशील अर्जुन शत्रुओंको व्यर्थ कर नीतिसे पृथ्वीको पालते हुए सुनपतमें रहते थे। नकुळ अपने कुलको सफल करते हुए जलपथमें निवास करते थे और मीतिभाजन सहदेव वणिकपथ पुरंम रहते थे । तात्पर्य यह कि वे महाभाग इस तरह जुदा जुदा रह कर अपने अपने हकके अनुसार आनंद-चैनसे उत्तम लक्ष्मीको भोगत थे । जव सब समुचित प्रबन्ध हो चुका तब युधिष्ठिर और भीमने जो देश देशमें राज-पुत्रियाँ व्याही थी, उन सबको वे वहीं ले आये । साथ ही वे कौशाम्बी पुरीसे विंध्यसेन राजाकी पुत्री वसन्तसेनाको भी लिया ले आये और युधिष्ठिरने उसके साथ व्याह कर लिया । भीमसेन आदि युधिष्ठिरकी आनाके अनुसार पृथ्वीको पालते हुए सदा उत्तम सुख भोगते थे और उनकी सेवाके लिए तैयार रहते थे । इन्हें धन-धान्य और सोने-चॉदी आदि जंगम विभूतिसे कुछ अधिक प्रयोजन न था; किन्तु ये सदा ही अपनी सेनाकी वढती दत्त-चित्त रहते थे । तात्पर्य यह कि इनका अपनी सेनाको बढ़ानेमें खूब यत्ल था। इनके हृदय विल्कुल साफ थे और यही कारण है कि इनके चेहरे सदा ही कमल से खिले रहते थे ये अपने मनकी स्वच्छतासे सब कामोंमें सफल होते थे । इन लोगोंको राज्यका विलकुल गर्व न था। ये सरल भावसे सदा ही गंगाके जलके जैसे स्वच्छ भीष्म पितामहकी भक्ति भावसे सेवा-उपासना करते थे । और इसी लिए पितामह भी इन पर पूरा स्नेह रखते थे। : । पाण-पुराण ३३
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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