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इकबीसवाँ अध्याय। उसी समय वहॉ शासनदेवता आई और वह कृष्ण तथा पार्थसे बोली कि प्रभो, कृष्ण, पार्थ और महामना नेमिप्रभु जैसे महात्मा जहाँ कहीं भी होंगे मैं सदा उनकी सेवा करूँगी । आप मुझे जो जी चाहे आज्ञा कीजिए । यह सुन कर उन्होंने उससे वैरीके सम्बन्धका सारा हाल कहा। जिसे सुन कर शासनदेवता वोली कि आप शीघ्र मेरे साथ चलिए । आपके सब कार्य सिद्ध होंगे। देवीके कहने पर पार्थ और कृष्ण उसके साथ गये । वे कुबेरके स्नानकी वावड़ी पर पहुँचे । बावड़ी सुखकी खान थी, सुंदर थी, सुवर्ण जैसे कमलोंसे पूर्ण थी और हंस-सारस आदिकी क्रीड़ाका स्थान थी । मणियोंकी उसकी सीढ़ियाँ थीं और जलकी कल्लोलोंसे वह व्याप्त थी । वहाँ पहुँच कर देवीने पार्थसे कहा कि पार्थ, इस बावड़ीके गहरे जलमें विशाल फणवाले भयंकर दो सॉप रहते हैं । उनका तुम बिल्कुल भय न कर बावड़ीमें प्रवेश कर उन्हें पकड़ लो । वे दोनों नाग तुम्हारे शत्रुको शल्यकी नॉई चुभेंगे और उनके लिए कालका काम देगें। यह सुन निपुण पार्थ उसी दम बावडीमें घुस गया और उसने विनोंको हरनेवाले उस नाग-युगलको पकड़ लिया। यह देख देवीने उनसे कहा कि इन दोनों नागोंमेंसे एक तो शरका काम देगा और दूसरा धनुषका । यह सुन कर धनुषधारी अर्जुन और कृष्णको वड़ा संतोष हुआ। इसके बाद देवीने पार्थसे कहा कि पार्थ, इनके द्वारा वैरीको जीत, जया के मस्तकको काट कर प्रसन्न हो ओ। परन्तु सुनो जयाका पिता वनमें विद्या साधनेकी इच्छासे तप कर रहा है । अत एव जयाको मार कर ही तुम न रह जाना; किंतु जयाईके मस्तकको काट कर तुम उसके पिताके पास वनमें जाना और उसके हाथोंमें वह सिर रख देना। तुम ज्यों ही उसके हाथोंमें जयाका मस्तक रक्खोगे त्यों ही वह भी काल-कवलित हो जायगां
और इस तरह तुम शत्रु-रहित हो जाओगे। बस, शत्रुके सम्बन्धमें इसके सिवा और कोई उपाय करनेकी जरूरत नहीं है। यही उपाय बस है। देवीके इन वचनोंसे पार्थको बहुत सन्तोष हुआ और वह धनुष-बाण लेकर कृष्णके साथ-साथ अपनी सेनामें चला आया।
___ सवेरा हुआ। मानों लोगोंको युद्धका दृश्य दिखानेके लिए ही सूरज निकला है । उभय पक्षके सबल योद्धा युद्ध के लिए उठे । इस समय जयाको धीरज देकर द्रोणने कहा कि, वत्स, चिन्ताको छोड़ो, अपने दिलको स्वच्छ रक्खो
और आनंदसे हो । मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा । इसके बाद द्रोणाचार्यने जयाईकी रक्षाके लिए चौदह हजार हाथियोंके घेरेके वीचमें उसे रक्खा और उन हाथियोंके
पाण्डव-पुराण ४२