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पाण्डव-पुराण ।' .
चारों ओर तीन घेरे और डाले । जिनमें पहला घेरा लाख घोड़ोंका था; दूसरा साठ हजार रथोंका और तीसरा बीस लाख पयादोंका था। इस तरहसे जयाईकी रक्षाका ठीक ठीक प्रवन्ध कर चुकने पर समुद्रकी भॉति धीर-बुद्धि द्रोणने अपने पक्षके राजा लोगोंसे कहा कि आप लोग तो जया की रक्षा करें और मैं उधर रणमें शत्रुओंका नाश करनेके लिए जाता हूँ । मैं निश्चयसे उनका ध्वंस करूँगा।
इसी समय सिंहकी भॉति पराक्रमी कृष्णसे युधिष्ठिरने कहा कि हम लोग बिल्कुल ही कर्तव्य-हीन हैं । इस प्रकार बैठे बैठे हम कर क्या सकते हैं ? जान पड़ता है हमारे वशकी बात नहीं है । यही कारण है कि पार्थकी प्रतिज्ञाका निर्वाह करनेके लिए इतने समय तक वनमें रहना भी व्यर्थ ही हुआ । सचमुच हम लोग अकिंचित्कर ही हैं। लोग हर एक वात आसानीसे कह तो देते हैं परन्तु फिर उसका निर्वाह करना उन्हें भारी दुर्लभ पड़ जाता है । यह सुन कर केशवने कहा कि महाराज, आप कोई शंका न करें । आपके सव कार्य निर्विघ्न सिद्ध होंगे । और आप ही कुरुजांगल देशका राज्य करोगे । इसी समय पार्थने प्रणाम कर युधिष्ठिरसे कहा कि देव, आज्ञा कीजिए जो मैं आपको अपनी भुजाओंका पराक्रम दिखाऊँ । यह सुन महामना युधिष्ठिरने धनंजयको बड़ी प्रसन्नतासे युद्ध-प्रयाणकी आज्ञा दी । युधिष्ठिरकी आज्ञा पाते ही अर्जुन रथ पर सवार होकर कृष्णके साथ-साथ चला । युद्धके सूचक भयंकर वाजे वजे । रण नाद करते हुए सैनिक, चिंघाड़ते हुए हाथी, हींसते हुए घोड़े विजयके गीत गाते हुए करोड़ों पयादे और रथ-समूह चले । युद्ध-स्थलमें पहुँच कर वे धीर सुभट वैरियोंके मस्तकोंको छेदते हुए तथा पृथ्वीको खूनसे तर करते हुए उमड़ उमड़ कर घमासान युद्ध करने लगे। वीर पार्थने शत्रुके रथोंको तोड़ गिरा या । चिंघाड़ते हुए हाथियोंके सुण्डादण्डोंको छिन्न कर उन्हें भी धराशायी कर दिया, जिनसे मार्ग-विल्कुल रुंघ गया। कहींसे निकलनेको जगह न रही । वातकी वातमें योद्धाओंके धड़ नाचने लगे। लहू-लुहान मस्तकोंसे पृथ्वी तर हो गई।
___इस महारणमें ऐसा कोई सुभट न रहा जो कि खूनसे न रँगा गया हो । यहाँ तक कि वहाँ रक्तका बड़ा भारी प्रवाह वह निकला, जिसमें तैरनेके लिए असमर्थ होकर योद्धा कहीं ठहर न सके; जैसे अगाध समुद्रमें न तैर सकनेके