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पाँचवॉ अध्याय
भाद, विलास, गीत, नृत्य आदि भॉति भॉतिकी चेष्टाएँ की, पर वे उसे चला न सकीं; जिस तरह अचल और उत्तम मेरु विजलीके द्वारा रंचमात्र भी नहीं चलता । तब उन्हें इन्द्रकी बातों पर पक्का विश्वास हो गया और ये मेघरथको नमस्कार कर अपने स्थानको चली आई। इसी तरह एक दिन समामें ईशान इन्द्रने प्रियमित्राके रूपकी प्रशंसा की । जिसको सुन कर रतिपेण और रति नामकी दो देवियाँ साक्षात् उसके रूपको देखनेके लिए आई; और स्नानके समयमें सुगन्धित तैल आदिसे मले गये भूपण-वन रहित उसके सुन्दर शरीरको देख कर वे कहने लगी कि जव इस समय इसका रूप ऐसा सुन्दर है तब शृंगार आदि करने पर कैसा सुन्दर होगा ! इसके बाद उन्होंने कन्याका रूप बनाया और वे चतुराईसे कहने लगी कि देवी! हम तुम्हारा रूप देखनेको आई हैं। इसके बाद रानीने अपने वत-आभूपण वगैरह पहिने और सुगन्धित पुष्प वगैरह गूंथे । उस समय उसका रूप देख कर वे देवियाँ अपना माथा पीटने लगी। यह देख उनसे रानीने पूछा कि यह वात क्या है ? वे कहने लगी कि चतुरे ! सुनो, ईशान इन्द्रने तुम्हारे रूपकी जैसी प्रशंसा की थी वह वैसा ही है, परन्तु स्नानके वक्त जो शोभा थी वह इस वक्त नहीं है । इतना कह कर वे देवियों तो अपने स्थानको चली आई और इधर रानीको अपने रूपको क्षणक्षयी जान कर वैराग्य हो आया । तब उसे राजाने आश्वासन दिया और कहा कि हम तुम दोनों साथसाथ ही दीक्षा लेंगे; क्योंकि मेरा दिल भी उदास हो रहा है । एक दिन राजा मनोहर नाम उद्यानको गया । वहाँ उसने अपने पिता धनरथ नाम प्रभुके दर्शन किये और उन्हें नमरकार किया । वे एक मनोहर सिंहासन पर विराजे हुए बहुत ही सुशोभित होते थे । राजा वैठ गया और उस कृतीने कल्याणकी वांछासे पूछा कि भगवन् ! क्रिया-संस्कारसे क्या लाभ है ? इस पर प्रभुने उत्तर दिया कि राजन् ! सुनिए । श्रावकाध्ययनमें जो १०८ क्रियायें बताई हैं उनमेंसे ५३ क्रियायें तो गर्भान्वय नामसे पुकारी जाती हैं और वे गर्भसे लेकर मरण तककी विधिको बताती हैं । ४८ क्रियायें दीक्षान्वय नामसे पुकारी जाती है; और वे दीक्षासे लेकर निर्वाण तककीः साधनेवाली हैं । और सात कन्चय क्रियायें हैं । वे सिद्धान्तको बताती हैं । इन क्रियाओंसे आत्माका पल बढ़ता है, उसमें नये नये संस्कार पैदा होते हैं, जिनसे अच्छी अच्छी भावनायें पैदा होती हैं । इस तरह धनरथ प्रभुके कहे हुए क्रियाओंके विधान-स्वरूप और फलको तथा श्रावकधर्मको सुन कर वह आत्म-दृष्टि विरक्त हो गया और