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________________ पाण्डव-पुराण। अपने छोटे भाई दृढ़रथसे उसने कहा कि तुम राज-पाटको संभालो; मैं अव तपोंको तपूँगा । इस पर शीघ्र ही परिग्रहको छोड़नेकी चाह रखनेवाला दृढ़रथ कहने लगा कि भाई ! राज-काजमें आपको जो जो दोष देख पड़ते हैं, उनको मैं भी तो देख रहा हूँ। इससे मैं यह सोचता हूँ कि पहले ग्रहण कर पीछे छोड़नेकी अपेक्षा पहलेसे ग्रहण ही न करे, यही अच्छा है । कारण कि कीचड़ लगा कर धोनेकी अपेक्षा उसको पहिलेसे नहीं लगाना ही बुद्धिमान् लोग अच्छा मानते हैं । इस तरहकी बातचीतसे अपने हँसमुख छोटे भाईको राजसे विरक्त जान कर मेघरथने मेघसेन नाम अपने पुत्रको बुलाया और उसे राज-पाट सॅभला दिया। इसके बाद वह सात हजार राजों और अपने छोटे भाई सहित दिगम्वर हो गया; उसने संयमको ग्रहण कर लिया; और थोड़े ही समयमें वह द्वादशांगका परिगामी श्रुतकेवली हो गया । उसने सोलह कारण भावनाओंको भाकर तीर्थकर नाम कर्मका बंध किया । एवं वह दृढ़, दृढ़रथके साथ-साथ नमस्तिलक पर्वत पर गया और वहाँ दोनोंने शरीर-आहार आदिसे ममता भावको त्याग कर एक महीनेके लिए संन्यास धारण किया तथा अन्त समयमें प्राणोंको त्याग कर वे सर्वार्थसिद्धि नाम विमानमें अहमिंद्र हुए। वहाँ उनका शरीर स्फटिकके समान स्वच्छ और स्फुरायमान प्रभावाला हुआ । तेतीस सागरकी उनकी आयु हुई । साढ़े सोलह महीनेमें वे श्वासोच्छास लेते थे और मनचाहा अमृतका आहार करते थे; सो भी तेतीस हजार वर्ष बीत चुकने पर एक बार । उनके मैथुन-क्रिया स्त्री-संभोग रहित उत्तम सुख था और लोकनाड़ीके भीतर सब जगह अपने योग्य द्रव्यको विषय करनेवाला उनके अवधिज्ञान था, जिसके द्वारा वे लोकभरकी बातोंको जानते थे। तथा उनके विहार करनेको विक्रिया-शक्ति भी उतनी ही थी । एक हाथका ऊँचा उनका शरीर था । और इस भवके बाद मनुष्यका भव पाकर उसीसे वे मोक्ष जानेवाले थे। ___ जम्बूदीपके भरतक्षेत्रमें एक कुरुजांगल नाम देश है । उसमें इस्तनापुर नाम नगर है। वहॉका राजा विश्वसेन था। वह बड़ा चतुर था, नीतिका ज्ञाता था। उसकी रानीका नाम था ऐरादेवी । वह बहुत सुन्दरी और सुन्दर नेत्रांचाली थी। तथा श्री, ही, धृति आदि देवियोंसे भी उसका पहला नम्बर था । वह रूपलावण्यकी एक सीमा ही थी। रातका वक्त था और वह शय्या पर सुखकी नींदमें सोई हुई थी । उस वक्त उसने सोलह स्वमों और मुंहमें प्रवेश करते हुए एक उन्नत हाथीको देखा । इस समय मेघरथका जीव जो अहमिंद्र,
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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