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आठवाँ अध्याय ।
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एक अॅगूठी भी मिल गई । अॅगूठीको हाथमे पहिन कर वह वहाँसे चला और सूरीपुर पहुँचा । वहाँ रात के वक्त उसने अदृश्य रूप बनाया और वह कुन्तीके महलमें पहुँच गया । उस समय कुन्ती वहाँ अकेली ही थी । उसके पास न तो मैं थी और न दूसरी कोई दासी वगैरह थी ऐसी हालत में एकान्त पाकर वह सुन्दराकृति कौरव-वंशी राजा हृदयमें बसनेवाली कुन्तीके साथ गांधर्व व्याह कर उसके साथ प्रति दिन रमने लगा ।
एक दिन एकाएक उसे मैने कुन्तीके महलमें देख लिया और कुन्तीसे उसका सब हाल पूछा । उस समय कुन्तीने उसका जो हाल मुझे कहा था वह मैंने जैसाका तैसा आपको सुना दिया है । राजन् ! इतने दिनों तक तो मैंने पुत्रीकी भरसक रक्षा की और उसके इस दोषको भी प्रगट नहीं होने दिया; परन्तु अब मेरे वशकी बात नहीं रही । अतः इस सम्बन्धमें अव आप जैसा उचित समझें वैसा करें ।
धायके इन वचनों को सुन उन दम्पतीने परस्परमें विचार किया और उत्तर में यह कहा कि तू इस दोपको गुप्त रख; देख, कहीं यह प्रगट न हो जाय । इसके बाद उस धायने कन्याके इस दोषको दबानेका खूब प्रयत्न किया, पर उसे कुछ भी सफलता न हुई । लोगों के कानोकान सब जगह वह फैल ही गई, जिस तरह जलमें छोडी हुई तेलकी बूँद सब जलमें फैल जाती है ।
इसके बाद धीरे धीरे जव नौ महीना पूरे हो गये तत्र कुन्तीने पुत्रको जन्म दिया । पुत्र बाल सुरजकी प्रभाकी नॉई प्रभावाला था । उसके शरीरकी बड़ी शोभा थी । वह कान्तिके पूरसे विभूषित था । पुत्रका जन्म होते ही सूरीपुरमें सब जगह उसकी खबर फैल गई । परन्तु राजाके डर के मारे कोई भी खुले मनसे इल वातको न कह सका । सब गुपचुप कानोकान एक दूसरे को कहते थे। धीरे धीरे यह किंवदन्ती कुन्तीके पिताके कानमें भी जा पड़ी और उन्हें यह मालूम हो गया कि सबने इस बातको जान लिया है । उन्होंने जन्मकी वात कानोंकान सब जगह फैलनेके कारण उस पुत्रका नाम कर्ण रख दिया तथा मंत्रियों की सलाह से उसे कुंडल वगैरह भूषण और रत्न-खचित कवच पहना कर एक सन्दूकमें बन्द कर दिया और उसीमें कर्ण नाम लिख कर एक पत्र तथा कुछ द्रव्य भी रख दिया । इसके बाद उस सन्दूकको तेजी से बहते हुए यमुनानदीके प्रवाहमें छुड़वा दिया ।
पाण्डव-पुराण १५