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________________ ३८६ पाण्डव-पुराण। an-Mmm . . . madurana. . . .. .la हे आत्मन् , यह शरीर मास, हड्डी, लोह वगैरहका बना हुआ है, विष्टाका खजाना है, मेद, चर्म और केशोंका घर है। इसमें तू चित्तको अनुरक्त क्यों करता है--इसे क्यों अपनाता है ।.देख तो सही कि इसके सम्बन्ध मात्रसे ही एकसे एक बढ़- । कर पवित्र वस्तुएँ भी क्षण भरमें अपवित्र हो जाती है । फिर कौनसा ऐसा कारण है कि जिसको देख कर तू शुक्र-शोणितके पिटारे इस शरीरसे मोह करता है। तेरा कर्तव्य तो यह है कि तू सव अशुचियोंसे रहित, सब शरीरोंसे भिन्न, ज्ञानरूप, निराकार और चिद्रूप आत्माको ही सदा भजे। इति अशुचित्वानुमेक्षा 1 जिस तरह समुद्र में पड़ी हुई सछिद्र नौकामें छिद्र द्वारा जल आता है उसी तरह संसार-समुद्रमें पड़े हुए प्राणियोंके भी मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे कर्मोंका आस्रव होता है । पाँच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पच्चीस कषाएँ और पन्द्रह योग ये आस्रवके भेद हैं । आस्रवके निमित्तसे जीव संसार-समुद्रमें काठकी नाँई तैरा करता है । इस लिए तुझे चाहिए कि तू आस्रवोंको छोड़ कर एक चिद्रूप-शाश्वत आत्माको भेजे।। इति आसवानुमेक्षा । आस्रवके रोक देनेको संवर कहते हैं और वह संवर समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्ष, तप और ध्यानके द्वारा होता है । देखो, कोका संवर हो जाने पर फिर आत्मा संसार-समुद्रमें नहीं डूवता; किन्तु अपने इष्ट पद पर पहुँच जाता है । अतः हे आत्मन, तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम सदा काल अक्लेश-गम्य और आत्माधीन मोक्षमार्गमें बुद्धि दो-व्यर्थ ही वाह्य आडम्बरमें भूल कर मत भटको । इति संवरानुभेक्षा। रत्नत्रयके निमित्तसे पहलेके बँधे हुए कमौकी निर्जरा होती है । जिस तरह चेतन की गई आग द्वारा दाह्य वस्तु निःशेष जल जाती है वैसे ही निर्जरा द्वारा पहलेके बँधे हुए सब कर्म नष्ट हो जाते हैं । निर्जराके दो भेद हैं। एक सविपाक और दूसरी अविपाक । इनमें पहली तो सर्व साधारणके होती है और दूसरी व्रतधारी मुनियों के होती है। और यही वास्तवमें कामकी है । हे आत्मन, संवर हो जाने पर जो कर्मोंकी निर्जरा होती है उससे तुम्हारे केवली होने में जरा भी देर नहीं रह जाती। क्योंकि जिस नावमें पानी आनेका रास्ता बन्द कर दिया गया और पहलेका पानी उलिच दिया गया उसमें फिर न तो पानी आ सकता। है और न पानी रह सकता है। इति निर्जरानुमेक्षा । ___ कटि पर हाथ रख कर, पाँव फैला कर खड़े हुए पुरुषके जैसे आकारका यह लोक आयनन्त रहित अकृत्रिम है-इसे किसीने बनाया नहीं है। इसमें भाणी अनिके वंश होकर बार-बार चकर लगाया करते हैं। क्योंकि - निषित
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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