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छब्बीसवाँ अध्याय । बात है कि कारण समर्थ रहते हुए कभी कार्यका क्षय नहीं हो सकता । उर्द्ध, मध्य और अध:के भेदसे हुई लोककी विचित्रताको देख कर स्वसवेदनकी मिद्धिके लिए हे आत्मन, तुम शान्त हो ताकि तुम्हें सुख मिले। इति लोकानुप्रेक्षा।
हे आत्पन , पहले तो भव्यपना ही दुर्लभ है और भव्य होकर भी मनुष्यजन्म, उत्तम क्षेत्र और उत्तम कुल पाना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । कदाचित् उत्तम कुल भी मिल गया तो सत्संगतिका पाना बहुत दुर्लभ बात है । मान लीजिए कि कभी सत्संग भी मिल गया और धर्मबुद्धि न हुई तो उसका पाना भी व्यर्थ ही गया । जैसे कि धान्य अधिकतासे उगा और उसमें यदि बाल न निकली तो वह उसका अधिकतासे उगना कौन काम आया। एवं कभी धर्म भी हाथ आ गया तो फिर मुनिधर्म पाना दुर्लभ ही है और उसके मिल जाने पर भी आत्मबोध होना कोई हँसी-खेल नहीं; किन्तु अत्यंत दुर्लभ है । यदि सौभाग्यसे कदाचित् स्वात्मबोध हो गया जो कि योगीन्द्रोंको ही होता है, तो उसका फिर सदा ही चिन्तन रहता है, वह फिर नहीं छूटना । जैसे किसीका धन चोरी चला जाता है या और किसी तरह खो जाता है तो उसे उसके मन करनेकी सदा ही चिन्ता रहती है । गरज यह कि योगी द्रोंके होनेवाला स्वात्प-बोध हुआ कि वह फिर आत्मासे जुदा नहीं होता। इसी लिए कहा जाता है कि आत्मलाभके सिवा न कोई ज्ञान है, न सुख है, न ध्यान है और न कोई परम पद ही है। जो कुछ भी है वह एक आत्मबोध ही है, अतः बुद्धिमानोंको चाहिए कि आत्मबोधको पाकर फिर घुद्धिको न बुलावें । क्योंकि जिसके हाथ चिन्तामणि रत्न आ गया वह काचके लिए बुद्धि करे यह ठीक नहीं। इति बोधिदुलमानुपेक्षा ।
उस जिनधर्मका सदा सेवन करना उचित है जिसके प्रभावसे मनुष्य उत्तम-उत्तम पदोंको पाकर सर्वोत्तम सुखोंको भोगता है। वह दुर्लभ धर्म दस तरहका है। योगीजन इस धर्मको तेरह प्रकारके चारित्रके रूपमें पालते हैं और मुक्तिपद पाते हैं । देखो, उत्तम धर्म ,वही है जो कि जीवको दु:खकी अवस्थासे निकाल कर शिव रूप सुधा-धाममें पहुंचा दे। मोहसे उत्पन्न हुए विकल्पोंको छोड़ कर शुद्ध चिद्रूपमें लीन होना भी धर्म है । और आत्माकी विशुद्धिको भी धर्म कहते हैं। यही धर्म आत्माको मुक्ति देनेवाला है । याद रखने की बात है कि जब तक
आत्माकी शुद्धि नहीं होती तब तक जीवोंको हेय-उपादेयका ज्ञान भी नहीं होता । एवं आत्माका ध्यान ही उचा धर्म है और वही उत्तम तप है । इसके बिना आत्माको हेय-उपादेयका ज्ञान हो ही नहीं सकता। इति धर्मानुपेक्षा।