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________________ छब्बीसवाँ अध्याय । ३८५ शटसे पकड़ लेती है। अतः कहना चाहिए कि मंत्र, यंत्र आदिक आत्माके लिए कोई भी शरण नहीं है। एक मात्र शरण है अपना किया हुआ पुण्य । जिस तरह समुद्र के बीच जाकर जिस पक्षीने नौकाका सहारा छोड़ दिया उसके लिए कोई भी शरण नहीं होता उसी तरह घायु कर्मके पूर्ण हो जाने पर इस पाणीके लिए कोई शरण नहीं होता। जब कि सुरेन्द्र भी अपनी देवियोंकी कालकीचालसे रक्षा करनेको समर्थ नहीं होता तब दूसरा कौन है जो उससे हे आत्मन् , तेरी रक्षा कर सके । तात्पर्य यह कि चिद्रूप, काल द्वारा अगम्य, अविनवर और शुद्ध आत्माके विना मोहित-चित्त प्राणियों के लिए और कोई भी शरण नहीं है-एक आत्मा ही शरण है। इति अशरणानुप्रेक्षा। ___आचार्योंने संसारके पॉच भेद वताये है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । इस पाँच प्रकारके संसारमें इस जीवने ऐसे अनंत चकर लगाये हैं जिनका एक एकका काल भी अनंत है और एक एकका अनेक बार नम्बर आया है। फिर हे प्राणी, तू शुभकी आशा कर संसारमें व्यर्थ ही काहेको अनुरक्त होता है। अपने चिद्रूप आत्मामें ही लीन क्यों नहीं होता । देख, ऐसा करनेसे तुझे संसारमें चकर लगानेके सिवा और कुछ भी लाभ न होगा । ___ इति संसारानुप्रेक्षा। हे आत्मन, संसारमें चक्कर लगाता हुआ तू जन्म-मरण, लाभ, अलाभ, सुख-दुःख और हित-अहितमें अकेला ही है--कोई भी तेरा साथी नहीं है। जो बन्धु-बान्धवके रूपमें तुझे नजर आते हैं वे सब स्वार्थ के सगे हैं। वे तुझसे भिन्न है । तू ही एक काँका कर्ता है और तू ही अकेला उनका भोक्ता है। यह शरीर भी तेरा साथी नहीं, फिर तू इसे छोड़ कर मुक्तिके लिए यत्न क्यों नहीं करता । एक चिद्रूप, रूपातीत, निरंजन, स्वाधीन और कर्मसे भिन्न सुखरूपआत्मामें लीन हो। - इति एकत्वानुप्रेक्षा। देख, कर्म भिन्न है, क्रिया भिन्न है और देह भी तुझसे भिन्न है, फिर तू ऐसा क्यों मानता है कि ये इन्द्रियों के विषय आदि पदार्थ मेरे हैं-मुझसे अभिन्न है, मैं देह-रूप हूँ। तू अपने चित्तमें ऐसा ख्याल भूल कर भी मत ला । सच तो ,, यह है कि यह तेरा शरीर सॉपको काँचलीके जैसा है । जिस तरह कॉचली साँपके 'चारों ओर लिपटी रहती है उसी तरह यह तेरे चारों ओर लिपटा हुआ है। तू देहसे बिल्कुल ही भिन्न है, ज्ञानी है, चारित्रधारी है, दर्शन-सम्पन्न है या.. यों कहिए कि रत्नत्रयका पिटारा है, कर्मातीत है, शिवाकार है और आकार रहित है। इति, अन्यत्वानुमेक्षा। पामाप-पुराण ४९
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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