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पाण्डव-पुराण ।
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आश्रय लिया वे रत्तम मंगल और शरण-रूप हैं । अव आत्माको नहीं, किन्तु शरीरको जलाती हुई आगने एक विपुल रूप धारण किया और जिस तरह वह एक कुटीको जलाती हुई गगन-तलमें फैलती है उसी तरह गगन तलमें फैल गई । वें सोचने लगे कि अग्नि मूर्त है, अत एव या मूर्त शरीरको ही जला सकती है हमारे अमूर्त आत्माओंको तो यह छ भी नहीं सकती, क्योंकि सहश पर ही सहशका पश चलता है । यह आत्मा शुद्ध-बुद्ध और सिद्ध है; निराकार और निरंजन है, उपयोग-मय और माता-दृष्टा तथा निरत्यय है । यह तीन प्रकारके कर्मोंसे जुदा है । देहके बराबर है। परन्तु देहसे भिन्न है । अनंतज्ञान
आदि अनंत चतुष्टय द्वारा समुज्वल है । इस तरह आत्म-स्वरूपका विचार करने करते वे विपक्ष के क्षयके लिए अनुप्रेक्षाओंका चिंतन करने लगे।
शुद्ध षनले यों विचार करने लगे कि संसारमें जीवों का जीवन क्षण-स्थायी है-मेघकी भाँति नष्ट होनेवाला है । फिर इसमें स्थिरताका भान तो हो ही कैसे सकता है। शरीर चंचल है, यौवन वृक्षकी छाया-तुल्य है या जलके बलों जैसा है, तया चित्त मेघ-तुल्य है। विषय, पदार्थ वगैरह जव कि चक्रवर्तियोंके यहाँ
भी स्थिर नहीं रहते तब औरोंके पास स्थिर रहनेकी तो कथा ही क्या है । अतः , विद्वानोंको चाहिए कि वे मोक्षकी सिद्धिके लिए विषयोंको स्वयं ही छोड़ दें और इस विनश्वर शरीर द्वारा अविनश्वर पदको साधनेमें कुछ भी उठा न रक्खें-इसीमें उनकी बुद्धिमानी है । सच पूछो तो इस लोकमें अपने आत्माके सिवा और कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है । सब इन्द्र धनुषकी भाँति केवल देखने मात्रके लिए मिय है। वास्तवमें संसारमें कोई मिय वस्तु नहीं । यदि कोई मिय वस्तु है तो वह एक आत्मा ही है । जब कि संसारमें भरतचक्री आदिके जैसे महापुरुषोंका जीवन भी स्थिर नहीं देखा गया तब फिर हे आत्मन, तू व्यर्थ ही क्यों दुःख करता है। अपने जन्मको सफल क्यों नहीं करता । तुझे तो यह चाहिए कि तू अपने एक क्षणको भी व्यर्थ न जाने दे। .
इति अनित्यानुप्रेक्षा । जिस तरह कि अशरण वनमें सिंहों द्वारा घेर लिये गये मृगके बचेको कोई भी बचानेवाला नहीं होता उसी तरह जब इस जीवको यमके नौकर घेर लेते हैं तब इसे कोई भी बचा नहीं सकता। यह यमराज ऐसा बली है कि जीवको चाहे शस्त्रधारी सुभट, · भाई-बन्धु और हाथी घोडे वगैरह क्यों न घेरे रहें पर बा कभी छोड़नेका नहीं; जैसे बिछी को नहीं छोड़ती--पक करें