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उन्धीसवाँ अध्याय ।
२८३ निर्भय थे। वे विशुद्ध-चित्त संयमको धारण कर मोह और प्रमादको क्षीण कर चुके थे और ध्यान द्वारा रहे-सहे पाप-समूहको और क्षीण करना चाहते थे।
इसके बाद विहार करते करते वे सौराष्ट्र देशमें पहुँचे । एक समयकी बात है कि वहां उन्होंने शत्रुनय गिरिके शिखर पर ध्यान दिया। वे पंच परम पदका स्मरण करते हुए धीरताके साथ शत्रुनय गिरि पर कायोत्सर्गे ध्यानसे स्थित हुए। और थोड़े ही कालमें आतापन आदि योग द्वारा. सिद्धिके साधक घोरसे भी घोर उपसर्ग सहनेके लिए समर्थ हो गये । उन तपनोंने वहाँ स्थित हो कर अक्षय, परम शुद्ध, चिन्मान और शरीरसे भिन्न परमात्माका ध्यान किया। इस प्रकार योगी पाडव निर्मल चित्तके साथ निर्ममत्व भाव धारण कर वहाँ स्थित ये । इसी समय अचानक वहाँ दुर्योधनका मानना क्रूचित्त कुर्मघर जो कि बड़ा दुष्ट और वज शठ था, आ गया । वह दुष्ट उन्हें धर्मध्यानमें स्थित देख कर मार डालने के लिए तैयार हुआ । वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मेरे मामाको मार कर ये मदमच पाण्डव यहाँ आ छिपे है । अब तो मैंने इनें देख लिया । अब ये कहाँ जायगे । इस समय बदला लेनेके लिए मुझे पूरा अवसर आ मिला है। कारण कि ये ध्यानमें आरूढ़ हो रहे है, अतः युद्ध जरा भी नहीं करेंगे । इस लिए मैं इन वाचंयम (मौनधारी) और यम'अर्थात् जन्म मरके लिए प्रतिज्ञा-बद तथा बली हो कर भी निर्बल मानियों को पूरे तिरस्कारके साथ ही क्यों न मारु-मुझे अवश्य ही ऐसा करना चाहिए । इसके बाद उसने लोहेके सोलर आभूषण बनवाये और, उन्हें जलती हुई आगमें खुब तपा कर अपिके जैसा ही हाल करवाया। इसके बाद उसने जलती हुई ज्वाला जैसे लोहके मुकुटको उनके , मस्तक पर रक्खा, कानोंमें कुंटल पहिनाये, गलेमें हार डाले, हाथोंमें कड़े और कमरमें करधौनियाँ पहिनाई । पाँवोंमें लंगर और मंगुलियों प्रदरियाँ, पहिनाई । उस धर्महीन , अधीने इस तरह उन्हें दुःख देनेके लिए तपे हुए काल, लोहेके गहने पहिनाये और पूरा-पूरा दुःख दिया । उन शानियों के शरीरमें क्यों ही वे भूषण पहिनाये गये कि उसी क्षण .. उनका शरीर जलने लगा, जैसे कि आगके योगसे काठ जलता है । उनके मळते हुए शरीरसे 'सब, दिशाओंको व्याप्त करनेवाला वैसा ही घोर धुआं निकला; जैसा, लकड़ीके जलनेसे अभिमसे धुंआ निकलता है । इस समय अपने शरीरोंको जलता देख कर उन श्रेष्ठ,पांडवोंने दाहकी शान्ति के लिए हृदयमें ध्यानरूपी अकको स्थान दिया । जिन, सिद्ध, सर्व साधु और सरे धर्मका नन्होंने