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पाण्डव-पुराण
कर भोजनकी इच्छाको रोका | पारणा करते हुए रसपरित्याग किया शून्यागार, गुहा, वन, पितृवन (मशानभूमि), वृक्षोंके कोटर, पहाड़ और निर्जन स्थान जैसे भयावने स्थानोंमें सिंहकी भाँति निर्भय होकर शय्या-आसन लगाया । शरीर से ममता भाव छोड़ कर चोराहे आदि जगहमें काय- क्लेश किया । इस प्रकार छह बाह्य तपका आचरण करते हुए और निर्विश विविध तप करते हुए पांडव पर्वत आदि स्थानोंमें ठहरे । वहाँ आत्माकी और व्रतकी शुद्धिके लिए वे आलोचना आदि भेदसे दस दस प्रकार प्रायश्चित्त करते; ज्ञान-दर्शन- चारित्र और उपचार के भेदसे चार प्रकारका विनय पालते चारित्राचरणके लिए उद्यत हो आचार्य आदिके भेदसे दस प्रकार विशुद्धि करनेवाला वैयाहृत्य पालते; ध्यानकी सिद्धिके लिए बाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश एवं पाँच प्रकारका स्वाध्याय करते; कषाय और आत्माका भेद समझ कर निर्जन स्थानमें शरीर से ममता छोड़ने रूप व्युत्सर्ग करते; और आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नाम चार प्रकार धर्मध्यान साधन करते | इस प्रकार तप करते हुए उन धीरवीरोंने शुक्ल नामके पहले शुक्लध्यानको साधा । इस तरह छह प्रकारके भीतरी तपको तप कर उन कर्मशूरौने कमको अत्यन्त कमजोर कर दिया, जिस तरह कि गरुड़ साँपोंको कमजोर कर डालता है । देखो, तपका ऐसा प्रभाव है कि उसकी बजहसे हृदयमें किसी तरहकी भी व्याधि स्थान नहीं पाती । बस वही कारण हुआ जो तप तपते हुए पांडवोंके पास विविध-समृद्धि, उपस्थित हो गई। तपके प्रभावसे ही वे खूब ऋद्धिशाली हुए । गरज यह कि पांडवोंने चाहिए जैसा बारह प्रकारके तपको तपा, जिसके प्रभाव से उन्हें विविध ऋद्धियाँ प्राप्त हुई।
वे बड़े धर्मात्मा थे । यही कारण है कि वे सभी प्राणियोंमे मैत्रीभाव, अधिक गुणवालों से प्रमोदभाव, दुःखी, दरिद्री जीवोंसे करुणाभाव और विपरीत चलनेवालोंसे मध्यस्थभाव रखते थे । हमेशा अपने शुद्ध-बुद्ध-निरंजन आत्माकी भावना करते और बारह भावनाओं द्वारा उसे स्थिर रखते थे । आत्माको आत्मामें कीन रखते थे । इससे उनकी आत्मायें रत्नत्रयका स्वच्छ प्रकाश हो कर मोहरूपी अँधेरा जड़ मूलसे नष्ट हो गया । उन्होंने शुद्ध चिन्मय आत्मामें लीन हो कर बड़ी धीरता के साथ तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके किये घोर उपसगको सहा और निर्मळ चित्त द्वारा भूख-प्यास आदि परीषहोंको जीता । वे ब्रह्मवारी थे, धीर ये, अप्रमादी थे, चारित्रके पालनेवाले ये और पवित्र तथा हावीके जैसे
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