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हे धर्मेश, पाप कर्मोंने हमें संसार रूपी अंधकूपमें गिरा रक्खा है, अतः कृपा कर आप धर्म-रूपी हाथका सहारा देकर हमारा उद्धार कीजिए । प्रभो, इम संसार रूपी जंगलमें पड़े हुए हैं, सो आप हमें धर्मकी सवारी देकर बहुत जल्दी मोक्ष-क्षेत्र में पहुँचा दीजिए । आज ही हमारा बेड़ा पार कर दीजिए । हे दक्ष, आपके प्रसादसे अब हम बहुत जल्दी शिव प्राप्त करना चाहते हैं । अतः आप हमें वह दीक्षा दीजिए जो कि हमारा कल्याण कर दे । इस तरह प्रभुसे प्रार्थना कर पांडव दीक्षा के लिए उद्यत हो गये । इसके बाद उन्होंने मनुष्यों द्वारा स्तुत्य माज्य राज्य पुत्रोंको सौपा और क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य तथा मिथ्यात्व आदि अंतरंग परिग्रहका त्याग कर, केशलोंचं कर, तेरह प्रकार चारित्र धारण कर जिनदीक्षा धारण की ।
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इनके साथ ही कुन्ती, सुभद्रा और द्रोपदीने राजीमती अर्जिकाके पास जाकर केशोंका लोंच कर संयम धारण किया । इनके अतिरिक्त उस समय संसारसे भयभीत होकर और भी बहुतसे राजा तथा बन्धु-गण शुभ परिणामों के साथ दीक्षित हुए
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इसके बाद जगद्गुरु गरिष्ठ युधिष्ठिरने बिना किसी कष्टके निष्ठुर मोह-मल्लको जीता | भव्य सम्पदाके भावुक, पापसे डरनेवाले लेकिन निर्भय तथा संसारबैरीके लिए मय देनेवाले भीमने भी मोह पर विजय पाई । समुद्धर धनंजयने चिचमें मुक्ति-रूपी वधूको स्थान दिया और प्रतिके साथ आराधनाओंकों आराधा । एवं मद्रीके पुत्रोंने भी द्रव्य, पर्याय आदिका अनुभव कर, परिग्रहसे विमुक्त हो, नासादृष्टि ध्यान लगा उत्तम तप किया । इस तरह कर्मों के शमनके लिए उद्यत हुए पाँचों ही पांडवोंने दृढ़ता से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंको वश करना, छह आवश्यक पालना, केशलोंच करना, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, भूमिमें सोना, दॉत नहीं घोना और एक बार दिनमें खड़े आहार लेना - इन मूल गुणका पालन किया। इसके बाद उत्तर गुणों की भावना करते हुए उन धीर धर्मात्मा तपोधनोंने धर्म-ध्यान किया। गुप्तियों द्वारा आत्माको रक्षित रखते हुए गौरवकं साथ द्वादशांगका मनन किया | इस प्रकार अपने वीर्यको प्रगट कर उन गुणाग्रणी पांढबोंने निःशंक होकर नेमिनाथ प्रभुके पास कठिन तप किया और कर्मोके नाश के लिए उद्यत होकर उन नरोत्तमाने' कर्मों की खूब निर्जरा की । उन्होंने छह, छह सात सात उपवास किये और पारणाके दिन केवल बत्तीस ग्रास मात्र आहार लेकर अवमौदर्य किया । मार्ग, घर, गली आदिकी प्रतिज्ञा द्वारा वृत्तिपरिसंख्यान
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छब्बीसवाँ अध्याय |
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