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________________ ཟངས་དཀ འགའ་ར གབགབ ག इकबीसवाँ अध्याय । छोड़ा और वातकी वातमें द्रोणको वेध कर विवश दिया । इसके बाद ही उसने द्रोणाचार्यको छोड़ दिया और उनकी पूजा कर अपना अपराध क्षमा कराया। द्रोण । तब कुछ लज्जितसे हुए और अब वे युद्धसे उदासीन हो, युद्ध छोड़ कर चुप बैठ गये। ___ इसके बाद पार्थने अपने चतुर सारथीसे कहा कि अब रथ कर्ण, दुर्योधन और अश्वत्थामाकी ओर बढ़ाओ । अर्जुनका यह पराक्रम देख दुर्योधनने भयभीत हो और कर्णके रथको अपने हाथसे रोक कर उससे कहा कि कर्ण, हमारी सव सेना नष्ट हो चुकी, अव क्या किया जाये । सुन कर कर्णने कहा कि इसकी तुम कुछ चिन्ता न करो। मैं पहले पार्थको मार कर ही दूसरे शत्रुराजोंकी खबर लूंगा। इसके बाद क्रोधसे उन्मत्त होकर कर्णने अर्जुनके साथ युद्ध छेड़ दिया और उधरसे सव कौरव युधिष्ठिरके साथ भिड़ गये। घोर युद्ध हुआ।योद्धाओंकी वाण-वरसासे सारा आकाश-मंडल ढंक गया। उनके रणनादसे दिशाएँ वहिरी हो गई । यह देख पार्थने बाणोंकी प्रबल मारसे कर्णके रथको छिन्न-भिन्न कर दिया और मय डोरीके उसके धनुषको तोड़ डाला। उधर रथमें सवार हो द्रोणने धृष्टार्जुनको घर ललकारा । यह देख धृष्टद्युम्नने द्रोणसे कहा कि जरा ठहरिए, मैं अभी ही आपको यमपुरकी सैर कराता हूँ। यह कह कर उसने द्रोण पर वाण-प्रहार शुरू कर दिया । द्रोणने . अपने शरकौशलसे उसके वाणोंको वीचमें ही छेद दिया---उसने उन्हें अपने पास तक भी न आने दिया । एवं उस गुण-गरिष्ठ द्रोणने उसके रथ-धुजा वगैरहको भी नष्ट कर वीस हजार क्षत्रियोंको यमपुरका पथिक बना दिया। उस समय द्रोणने कोई एक लाख सुभटोको धराशायी किया और हाथी, घोड़े तो इतने मारे कि उनकी कोई गिनती ही नहीं । तात्पर्य यह है कि उन्होंने सारी एक अक्षौहिणी सेनाको नष्ट कर जीबनसे निराश कर दिया। इतनेमें द्रोणको इस महा हिंसा करनेसे रोकती हुई आकाशमें देववाणी हुई कि " द्रोण, तुम इतना भारी पाप - काहेके लिए करते हो और क्यों इन राजों के साथ विरोध मानते हो। तुम्हें इन झगड़ोंमें न पड़ना चाहिए। किन्तु हृदयको पवित्र कर तुम स्वर्गके अतिथि ब्रह्मेन्द्र वनों"। यह सुन भीम वोला-हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, सचमुच तुम्हें पाप करना उचित नहीं है । इससे कुछ लाभ नहीं । अतः गुरुवर्य, पांडवोंको कुरुजांगल देशका राज्य देकर आप सुखसे रहो । यह सुन द्रोणने कहा कि यह नहीं हो पाणव-पुराण १३
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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