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________________ २६० पाण्डव-पुराण। वाजी पर बड़े क्रोधित होकर कहने लगे कि यादवोंकी कन्याको हर लेजा कर यह दुर्जन अर्जुन छिप करके जायगा ही कहाँ ? हम लोगोंके मारे पानीमें डूबने पर भी तो नहीं बचेगा। . इस प्रकार समुद्रके जैसा गंभीर और चतुरंग सेना-रूप तरंगोंसे तरंगित समुद्रविजय अपने वन्धु-वर्गको साथ लेकर चला और घोड़ेके हीसनेके शब्दसे उन्नत सेना-सहित बलदेव भी चला । इनके साथ ही पराक्रमी नारायण धनुष-बाण लेकर, पाँचजन्य शंखका मंद मंद शब्द करता हुआ कुछ सेनाको साथ ले सिंहकी नॉई बढ़ा। इसी प्रकार भूरि विभूतिवाले, लोकोत्तम, तेजस्वी और निर्भीक राजा भी इनके साथ रवाना हुए । इसके बाद,नारायण , इधर उधर कुछ घूम कर सेना-सहित द्वारिका वापिस आ गया और बलदेव आदिको बुला कर उसने कहा कि दादा, वात यह है कि अब ज्यादा झगड़ा बढ़ानेसे कुछ लाभ नहीं । अतः अच्छा यही है कि सुलक्षणा होने पर भी हरे जानेके दोषसे दूषित हुई बहिन सुभद्रा पार्थको ही दे दीजिए । और अर्जुन अपना भनेज ही है तव उसके लिए यह सर्वथा योग्य है । अत एव सोच कर उसे अर्जुनके लिए अपने हाथसे ही देना योग्य है । क्योंकि अर्जुनके साथ झगड़ा करना अब व्यर्थ ही है । कृष्णके ऐसे माया भरे शब्दोंको सुन कर उन लोगोंने अर्जुनके लिए सुभद्रा देना स्वीकार कर लिया । इसके बाद कृष्णने अपने चतुर मंत्रियोंको बुलाया और उन्हें सुभद्राको ले आनेके लिए सुनपत भेज दिया। उन्होंने वहाँ जाकर अतीव विनयके साथ अर्जुनको प्रणाम किया और अर्जुनको वचन देकर सुभद्राकं साथ वे द्वारिका वापिस आगये । इसके बाद वहाँ व्याहकी सब तैयारी की गई और एक सुन्दर विवाहमंडप निर्माण किया गया । उसमें परम उत्साहके साथ शुभ मुहूर्त, शुभ लग्नमें परम भौतिके साथ अर्जुनने सुभद्राका पाणिग्रहण किया । अर्जुन उसके लिए बड़ा उत्सुक हो रहा था। विवाह के समय अनेक प्रकारके वाजोंके शब्दसे दिशायें शब्द-मय हो रही थीं। नट-नाटियोंके मनोहारी नृत्य हो रहे थे । दीन-हीन गरीब अनाथोंको खूब दान-मान, धन-दौलतसे तृप्त किया जा रहा था। इस विवाहोत्सवमें यादवोंके बुलाये हुए सव पांडव भी आकर सम्मिलित हुए थे । इस प्रकार अपनी प्यारी सुभद्राको पाकर अर्जुन सुखके साथ समय विताने लगा। इधर भीमसेनने लक्ष्मीमती और शेषवनीका पाणिग्रहण और किया । तथा नकुलने विजयाका और सहदेवने जो सवप्त छोटा था, सुरतिका पाणिग्रहण किया।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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