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सत्रहवाँ अध्याय ।
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इस प्रकार विवाहोत्सव के समाप्त हो जाने पर सब राजा जव अपनी अपनी राजधानी में चले गये तब एक दिन पार्थके साथ कृष्ण उपवनमें क्रीड़ा करनेको गया । और वहाँ उन दोनोंने सफल- मनोरथ होनेके कारण अतीव प्रसन्न ताके साथ जल-कल्लोलोंसे खूब क्रीड़ा की। वे जल-क्रीड़ायें निमग्न हो रहे थे कि इतने में उधर से जाते हुए और अपने मीठे वचनोंसे सबको सन्तुष्ट करनेवाले एक ब्राह्मणने अर्जुन से कहा कि पार्थ, मुझे भोजन और उत्तम उत्तम वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट करो |
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राजन, मैं दावानल हॅू और आप कौरवोंके वीर पुत्र हैं। मैं चाहता हूँ कि आप अपने समर्थ सेवकोंको साथ लेकर मेरे इस वनको जला कर नष्ट कर दीजिए | उसके इन वचनों को सुन कर उत्तरमें तेजस्वी पार्थने कहा कि आज न तो मेरे पास रथ है और न कोई धनुर्धर ही है । और मेरे सब कार्योंके साधक दिव्य शर भी मेरे पास नहीं हैं । यह सुन कर उस द्विजने अर्जुनको एक ऐसा रथ दिया जो वानरके लक्षणसे युक्त था और शत्रु जिसको जीत नहीं सकते थे । इसके बाद फिर उस द्विज- वेष धारी देवने मुसकरा कर अर्जुनको वन्दि, वारि, भुजंग, तार्क्ष्य, मेघ और वायु आदि बाण दिये । नारायणको उसने गदा और गरुड़की धुजा से चिन्हित एक रथ दिया और नाना कार्य करनेवाले बहुत से रत्न नारायणकी भेंट किये। इस समय इन वाणको पाकर पार्थने उस वनको जलाने के लिए एक बाण छोड़ा, जिससे भयभीत हुए वनेचर जन्तुओंको जलाता हुआ दावानल धीरे धीरे सारे वनको घेर कर सव ओरसे वनको जलाने लगा । पक्षी, सॉप, हाथी, सिंह और मृगों आदिको जलाती हुई वह आगकी ज्वाला आकाशमें वहुत ऊँचे तक जाने लगी । उसने थोड़ी ही देरमें सारे वृक्ष और तृण-समूहको जला कर खाकमें मिला दिया । सच है जब भूखा यम क्रोध करता तत्र देव-दानव और मनुष्य आदि किसीको भी वह नहीं छोड़ता । इसके बाद अर्जुनको एक बाण देते हुए उस द्विजने कहा कि इस बाणके प्रभाव से जिस वस्तुको आप चाहें जला सकते हैं और निश्चय रक्खें कि जिसको आप जला देंगे उसको फिर न तो सुरेन्द्र बचा सकता है और न यम ही ।
इस प्रकार सारे वनके समस्त जीव-जन्तुओंको जलते हुए देख कर एक तक्षक नाम नागको बड़ा भारी क्रोध आया और उसने सब देवतको निमंत्रित किया। उससे क्रोधमें भाकर सब देवता यह कहते हुए दौड़े आये कि महानुभाव पार्थ,
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