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पहला-अध्याय।
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सब जगह धर्मका उपदेश कर संसार तापसे संतप्त जीवोंका ताप बुझाया- उन्हें शान्ति दी। वीर भगवानने जिन जिन आर्य देशोंमें विहार किया था वे ये हैं
कोशल, कुरुजांगल, अंग, वंग, कलिंग काश्मीर, कोंकण, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र भेदपाट, सुभोटक, मालवा, कर्नाट, कर्णकोशल, पराभीर, सुगंभीर और विराट । इसके बाद मगधदेशको प्रतिबोधने के लिए भगवान दुवारा विपुलाचल पर्वत पर आये और वहाँ वे ऐसे शोभित हुए मानों पूर्व दिशामें उदयाचल पर सूरजका उदय ही हुआ है।
कुछ समय बाद इधर उधर घूमता फिरता वनपाल वहाँ आया और वीरप्रभुकी वचन-अगोचर विभूतिको देख कर अचम्भेमें पड़ गया। वह सोचने लगा कि यह क्या बात है ! थोड़ी ही देरमें वह सब बातें समझ गया और सब ऋतुओंके फल-फूल लेकर इस शुभ समाचारके साथ राजमंदिर पहुंचा । वहाँ पुण्यवान महाराज एक मनोहर सिंहासन पर विराजे थे और देश-विदेशोंसे आई हुई भेटोंकी देख-भाल करते थे । उनके ऊपर एक अपूर्व छत्र लगा हुआ था, जो धूपकी बाधाको दूर करता था । उनकी लम्बी और मजबूत भुजाएँ उनके पराक्रमको कहती थीं । गायक-गण संगीत द्वारा उनका गुण-गान करते थे। सैकड़ों कुलीन राजा-महाराजा हाथमें तलवार ले-ले सेवामें उपस्थित हो उनका यश गाते थे। उनके दोनों कुंडल ऐसे जान पड़ते थे मानों वे चॉद और सूरज ही हैं। उनके मुकुटकी किरणें सव ओर फेल रही थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानों महाराज उनके द्वारा आकाश-पट पर अपना चित्र ही लिख रहे है। उनके मनोहर हारकी कान्ति सव ओर विस्तृत हो रही थी, जान पड़ता था कि वह सव लोगोंकी हँसी उड़ा रही है । अपने कड़े, अंगद और वाजूवंदोंकी कान्ति द्वारा वे अँधेरेको दूर करते थे, और दॉतोंकी उज्ज्वल किरणोंसे पृथ्वी-तलको उज्ज्वल करते थे। इतनेमें द्वारपालकी आज्ञासे वनपाल भीतर आया । और सब ऋतुओं के फल-फूल महाराजकी भेंट कर तथा उन्हें नमस्कार कर हर्षके साथ बोला कि देवोंके देव ! आज वनमें विपुलाचल पर्वत पर वीरप्रभु आये है। वे नाथवंशके दीपक है, पृथ्वीके तिलक और स्वामी है। राजन् ! यह सव उन्हींका माहात्म्य है जो आज वनमें क्रूर-चित्त और जीवोंको महान् संकटमें डालनेवाली व्याघ्री भी अपने बच्चेकी चाहसे गायके वछवे पर प्रेम करती है । तथा सिंह और हाथीके बच्चे अपने जातीय रैर-विरोधको भूल कर सुखकी इच्छासे एक जगह खेलते है।