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________________ ३५६ करको पार कर यहॉ पाण्डव आ ही कैसे सकते हैं । इसके वाद राजा चुप हो रहा। और द्रोपदी आहार -पानी, वेष-भूषा आदि सब छोड़ चित्रमें लिखी हुई काठकी पुतलीकी भाँति हो रही । पाण्डव-पुराण | www w wwwww www. उधर हस्तिनापुर में सवेरा हुआ । तव पांडवोंको जान पड़ा कि सर्वोत्तमा द्रोपदी महल में नहीं है— वह शत्रु द्वारा हरी गई । उसे बहुत देखा-भाला, पर कहीं उसका पता न पाया — उन्होंने उसकी भर सक खोज की, पर उसे कहीं भी न देखा । - इसी समय एक अपरिचित जनने द्वारावती जाकर कृष्णको प्रणाम कर उनसे द्रोपदीके हरे जानेका सारा हाल कहा । जिसे सुन कर रण-विषम कृष्णको बहुत दु:ख हुआ । उसका परिणाम यह निकला कि उन्होंने क्रोधमें आकर युद्धकी घोषणा कर दी । कृष्णकी आज्ञा पाते ही उनके हसते हुए घोड़े, गर्जते हुए हाथी और चीत्कार करते हुए रथ चले । पयादे नंगी तलवारें, भाला, धनुष वगैरह हाथमें लिये हुए राज-आँगनमें आये । इधर जब तक कृष्ण चतुरंग सेना ले चलने को तैयार हुए तब तक उधर नारद अमरकंकापुरी पहुँचे । वहाँ उन्होंने तपे सोने के जैसी प्रभावती कृशोदरी द्रोपदीको बाल बिखरे और आँसुओंसे मुँह भींगे हुए देखा वह मारे रंजके अपने हाथ पर कपोल रखे बैठी थी । ऐसी हालत में उसे देख कर यह जान पड़ता था मानों हलन चलन आदि क्रिया रहित प्रतिमा ही है । अथवा कामसे बिछुड़ी हुई रति या इन्द्रसे बिछुड़ी हुई इन्द्राणी ही है; और वह अपने अनुपम रूप रूपी तलवार जीत कर ही यहाँ स्थिर हो गई है । द्रोपदीको ऐसी हालत देख कर कलहप्रिय नारद मन-ही-मन सोचने लगे कि हाय मानके वश होकर मुझ पापीने इस सतीको व्यर्थ कष्टमें डाला । यह मैंने अच्छा नहीं किया । द्वारा लक्ष्मीको 9 . इसके बाद वह रणके लिए उद्यत हुए कृष्णके पास पहुँचे और उनसे वोले कि नारायण, तुमने यह विशाल सेना किस लिए एकत्र की है । द्रोपदीके लिए हो तो वह तो धातकीखंड दीपकी अमरकंकका पुरीमें मौजूद है। पूछो कि वह वहाँ कैसे पहुँची तो इसका उत्तर: यह है कि जिस तरह रावणने सीताको हरा था उसी तरह वैरियोंके वंशभरका नाश करनेवाले पद्मनाभ राजाने एक देवताकी आराधना कर उसे हरा है— उसे देवताके द्वारा वहाँ बुला मँगाया है। चाहे कैसा ही वलवान मनुष्य क्यों न हो वहाँ जानेकी किसी की भी शक्ति नहीं | अतः आप बेफिक "
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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