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________________ बावीसवाँ अध्याय। ३५५ सुर-असुर और नरेश्वर भी उसके दास बन जाते हैं । शीलसे ही उज्ज्वल, सुंदर शरीर मिलता है-उच्च कुलमें जन्म होता है, स्वर्गकी प्राप्ति होती है और उसीसे चक्रवर्तीका पद मिलता है। शीलके द्वारा ही स्त्री जातिकी शोभा होती है और उसीके प्रभावसे जलती हुई आग भी पानी हो जाती है; जैसी कि सीताके लिए हुई थी। शीलके प्रभावसे जिस तरह सुलोचनाके लिए गंगा जैसी नदी भी थल हो गई, उसी तरह और भी जो जो स्त्री-जन शीलका परिपालन करेंगी उनके लिए भी जल थल हो जायगा । अधिक कहाँ तक कहा जाय यह शील ऐसा है कि इसका पालन करनेसे जीवोंको सव सुख प्राप्त होते है-उनके लिए बड़ा भारी समुद्र भी क्षणभरमें गायके खुर तुल्य छोटासा गढ़ा हो जाता है। इस सम्बन्धमें श्रीपालकी स्त्री मैनासुंदरी स्मरणीय उदाहरण है । शीलवतका पालन करनेमें माण भी चले जायँ तो भवभवमें सुख प्राप्त होता है। अतः प्राण जायें तो भी मैं किसी तरह शीलको नहीं छोडूंगी । उसे प्राणोंके बदलेमें रक्तूंगी। यह सब सोच कर वह साहसके साथ पद्मनाभसे बोली-तुम नहीं जानते कि किससे ऐसी वेहूदी बातें कह रहे हो। जानते हो संसार प्रसिद्ध पॉच पांडव मेरे रक्षक है, वे अखंड धनुर्धर हैं, इन्द्रोंके भी विजेता हैं । उनके प्रभावसे दृढ़-चित्त देवता भी थर-थर कॉपते हैं । उनके रहते किसी शत्रुकी ताब नहीं जो उन्हें युद्ध में विचरते जरा भी रोक सके वा उनके आत्मीयको कष्ट दे सके । सच कहती हूँ कि वे ऐसे वीर हैं कि अपने सघन आघातों द्वारा वैरियोंको वातकी बातमें नष्ट कर डालते हैं । इतने पर भी तीन खंडके स्वामी, सुर-असुरों . द्वारा पूजित और भारतके भूपण कृष्ण-बलदेव जैसे जिसके भाई हैं उसी द्रोपदीके न साथ तुम्हारा यह बर्ताव है । तुम्हारी तरह ही एक वार कीचकने मेरे शीलको बिगाड़नेकी चेष्टाकी थी। फिर मालूम है कि उसे उसके सौ भाइयोंके साथ प्रचंड पांडवोंने एकदम मार डाला था । हे मानी राजा, तुमने जो कुछ किया सो तो किया, पर अव अपनी पोप-वासना त्याग दो । देखो, तुमने एक नागिनको या यों कहो कि विषकी वेलको अपने घरमें बुलाया है। इसका परिणाम बहुत बुरा होगा। तुम मेरी आशा छोड़ कर सुखसे रहो । इतने पर भी तुम्हें मेरे कहनेका विश्वास न हो तो एक महीना ठहरो । तब तक बहुत करके पाण्डव भी यहाँ आ जायँगे । तब तुम्हें अच्छा जान पड़े सो करना । द्रोपदीके वचन सुन कर पद्मनाभने मन-ही-मन यह सोचा कि यह कहती तो है, पर इतने विशाल रत्ना
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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