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________________ पाण्डव-पुराण । भोग विलास करो; और देश, खजाना, पुर, रत्न, हाथी-घोड़े, महल वगैरह जो कुछ तुम्हें अच्छा जान पड़े उसे ग्रहण कर अपना मन वहलाओआनंद करो । सुंदरि, मेरे हृदयमें जो विरहकी आग जल रही है उसे बुझाओ-शान्त करो । विरहकी आग द्वारा जलते हुए मेरे मर्म-स्थल पर भोगरूपी जल सींचो । हे कामदेवकी प्रतिमा रूपी देवि, तुम विपाद छोड़ कर मेरी तरफ सीधी दृष्टि डालो और भव्ये, मेरे साथ सुख-भोग भोगो। हे सुख देनेवाली महादेवी, 'तुम मेरे मनकी व्यथाको दूर करनेवाली राज-रानी बनो और भव्य भाव-सीधे-साधे स्वभाव का परिचय दो।' पद्मनाभके ऐसे वचनोंको सुन कर शोकमें निमग्न हुई वह सती थर थर काँपने लगी और जब वह अपने हृदयके वेगको न रोक सकी तव एकदम से पड़ी। उसकी आँखोंसे ऑसू बह चले। गरज यह कि वह पद्मनाभकी चापलूसीकी बातोंसे बड़ी खिन्न हुई । वह युधिष्ठिर आदिको याद कर विलाप करने लगी कि हा पूज्य युधिष्ठिर, तुम धर्म-बुद्धि के धारक हो; हा भीम, तुम बड़े वीर और पवित्र कहे जाते हो तथा हा रणमें सामर्थ्य दिखानेवाले और शत्रुओंको वश करनेवाले स्वामी अर्जुन, देखते नहीं कि मुझ पर यह कैसा दुःखका पहाड़ टूट पड़ा है। बतलाओ यहाँ मेरी कौन रक्षा करेगा । तुम ऐसे अचेत-सावधान-रहे जो तुम्हें मेरे हरे जानेकी भी खबर न हुई । यही तुम्हारी वीरता है ! बतलाओ अव मेरी क्या गति होगी । परन्तु इसमें तुम्हारा भी क्या दोष है । तुम्हें मेरे हरे जानेकी खबर ही नहीं है। और जब तक तुमको मेरी खवर न मिले तब तक भला तुम प्रयत्न ही क्या कर सकते हैं। हा, देवताने मुझे सोई अवस्थामें हर लिया और लाकर यहाँ छोड़ दिया । उसने मेरे साथ बड़ा अनुचित काम किया है-उसे ऐसा करना उचित नहीं था । इस तरह विलाप करती द्रोपदी तो रंज कर रही थी और पद्मनाभ अपनी बात सोच रहा था। बाद वह द्रोपदीस बोला कि सुश्रोणि, तुम शोक काहेको करती हो । यहाँ तुम्हें कष्ट ही किस वातका है । तुम शोक छोड़ कर आनन्दसे रहो और सुखकी प्राप्तिके लिए मेरे साथ रमण करो। मेरे साथ रमनेसे तुम्हें अपूर्व सुख होगा । प्रिये, धनंजयकी आशा छोड़ो और विषाद त्याग कर भोगोंका आनन्द लो । पद्मनाभके शीलको भंग करनेवाले इन वचनोंको सुन कर द्रोपदीने सोचा कि मनुपयोंका सच्चा गहना शील-रूपी रत्न ही है। यही एक ऐसा मंत्र है कि जिसकी वजहसे
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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