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बावीसवाँ अध्याय ।
३५७. होकर वैठिए । कारण वहाँसे द्रोपदीको लाना बहुत ही दुर्घट है कठिन है।
यह सुन कर कृष्णने सारी सेनाको तो वहीं छोड़ा और आप अकेला ही स्थ , पर सवार होकर हस्तिनापुर गये । वहाँ पाण्डवोंने कृष्णको द्रोपदीके हरे जानेका सारा हाल सुनाया, जिसे सुन कर बड़ा भय मालूम पड़ता था।
इसके बाद उन सबने मिल कर विचार किया और यह निश्चय किया कि लवण-समुद्रका लॉघना बहुत कठिन है, अत: इसके लिए कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिए। यह विचार विचार कर वे निष्पाप लवण समुद्रके तीर पर गये और वहॉ शक्तिशाली कृष्णने तीन उपवासके बाद उस समुद्रके स्वामी स्वस्तिक नाम देवको साधा । उसने इन्हें जल पर चलनेवाले शीघ्रगामी छह रथ दिये । जिन पर सवार होकर ये छहोंके छहों ही वातकी घातमें अमरकंकापुरी पहुँच गये। वहाँ जाकर विष्णु और पांडवोंने सिंहनाद किया । कृष्णने सा-धनुष चढ़ा कर भीपण टंकार किया। भीमने विजलीके जैसी गदाको वेगके साथ घुमाया । नकुलने शत्रुको भेदनेवाला माला हाथमें लिया और सहदेवने दीप्तिशाली तलवार हाथ ली । एवं धर्म पुत्र-युधिष्ठिरने जीतनेवाली शक्तिको धारण किया । अपने सव भाइयोंको युद्ध के लिए उद्यत देख कर युधिष्ठिरको प्रणाम कर पार्थने कहा कि आप सब तो विश्राम कीजिए-मैं अकेला ही क्षणभरमें शत्रुको वारण कर दूंगा। आपको कार उठानेकी जरूरत नहीं है ।
यह कह पार्थने देवदत्त नाम शंखको फूंकते हुए एक उत्तम रथमें सवार हो, धनुष सँभाल शत्रु पर घावा मारा । कृष्णने लोगोंको भय देनेवाला पॉचजन्य शंख वजाया । उसको सुन कर वलसे उद्धत पद्मनाभ पुरसे बाहिर निकला; और उस बलीने रणके वाजोंके शब्द द्वारा सव दिशाओंको बधिर करते हुए तथा धूल द्वारा आकाशको ढंकते हुए वेगके साथ पार्थसे खूब युद्ध किया । पार्थने अपने महान् तीखे शरों द्वारा उसे जर्जरित कर दिया, जिससे वह रणको पीठ देकर भागा और फाटक बंद कर पुरी में छिप रहा। कृष्णने जाकर पॉवोंके कठिन महारों द्वारा फाटकको तोड़ डाला । वे सब नगरीके भीतर गये और वहाँ उन्होंने सब लोगोंको भय भीत कर दिया । भीमने अपनी गदाके द्वारा बहुतसे मंदिरमहल गिरा दिये और उनकी सव लक्ष्मी लूट ली । यह देख लोग भागे । उनके साथ ही राजा भी भागा। वह भाग कर त्राहि त्राहि कहता द्रोपदीके शरण पहुंचा और बोला कि देवी, मैंने तुम्हें हर कर जो पाप किया उसीका यह फल मुझे