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तेवीसवाँ अध्याय ।
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तेबीसवाँ अध्याय।
में उन उत्तम मुनि, सुव्रत धारण करनेवाले और मुनियोंको सुव्रत-उत्तम
"व्रत-देनेवाले मुनि-सुव्रत जिनको नमस्कार करता हूँ जिनके आश्रयसे मनुष्य मुनि-सुव्रतका धारी हो जाता है ।
पांडवोंने कृष्ण के चरणों में प्रणाम कर कहा-इन शब्दोंमें हर्ष प्रगट किया कि हमने जो वैरीके द्वारा हरी गई द्रोपदीको प्राप्त किया, यह सब आपहीका प्रभाव है । इसके बाद मनोरथ सफल होनेसे प्रसन्न-चित्त पांडव सुंदरी द्रोपदीको लेकर, रथ पर सवार हो वहाँसे चले । चलते समय कृष्णने महान नाद करनेवाले
और समुद्र जैसी गंभीर ध्वनिवाले अपने पाँचजन्य शंखको पूरा । जिसके पृथ्वीको कॅपानेवाले शब्दको सुन कर धातकीखंडकी चंपापुरीका स्वामी त्रिखंडमण्डल-पति महामना कपिल नारायण जो कि जिन देवकी वन्दनाको आया था, चौंक पड़ा और उस अर्द्धचक्रीने वहीं समवसरणमें स्थित मुनिसुव्रत स्वामीसे प्रश्न किया कि प्रभो, यह शंखध्वनि किसकी है-या किसने की है । उत्तरमें भगवान वोले कि जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें द्वारावती नामकी पुरी सुशोभित है । वहाँका राजा तीन खंडका प्रभु कृष्ण नारायण है । वह पार्थप्रिया द्रोपदीके लिए यहॉ आया है और उसीने यह शंखध्वनि की है।
इसके बाद कपिल चक्रीको कृष्णसे मिलने या उसे देखनेका इच्छुक देख कर भगवानने कहा कि नारायण, देखो, यह नियम है कि चक्री चक्रीको, नारायण नारायणको, तीर्थकर तीर्थंकरको और वलभद्र वलभद्रको देख नहीं सकते; और न ये आपसमें मिल-जुल ही सकते हैं। लेकिन यदि तुम चाहो तो जाते हुए उनकी ध्वजाका अवश्य ही दर्शन कर सकते हो ।
भगवानके द्वारा यह सुन कर भी कपिलके हृदयसे कृष्णको देखनेकी इच्छा दूर न हुई और वह . उसको देखनेकी इच्छासे गया भी; परन्तु जिन देवके कहे अनुसार उन दोनोंको परस्परमें एक दूसरेकी धुजाका ही दर्शन हो सका। दोनोंने अपने अपने शंख फूंके। उनका शब्द भी दोनोंने ही सुना। इसके बाद कृष्णको समुद्रमें प्रवेश कर गया जान कर कपिल पीछा लौट आया और चंपामें आकर उसने परस्त्री-लंपट पद्मनाभकी पूरी-पूरी भर्त्सना की । वाद इसके वह तीन खंडका पति वहाँ सुखसे रहने लगा।