SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ पाण्डव-पुराण। विंध्याचल पर्वत पर क्षमाधर नाम योगीराजको तीन लोकको प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञानलाभ हुआ है । इस लिए ज्ञान-सम्पत्तिको चाइनेवाले हम सब धर्मामृत पीनेकी इच्छासे प्रभुका ज्ञानकल्याण करनेके लिए वहाँ जा , रहे हैं । यह सुन कर वह विद्याधर भी वहाँ गया और पापसे पराङ्मुख हो उसने मुनिके चरण-कमलों में प्रणाम करके धर्मा-मृतका पान किया और संसारसे विरक्त होकर संयम लेनेकी इच्छासे उस क्षमाके भंडार और शान्त परिणामी विद्याधरने दीक्षाके लिए मुनिराजले प्रार्थना की । यह देख उस गदा विद्याको बड़ी चिन्ता हुई और वह आकर उस विचक्षणसे कहने लगी कि हे कृत अर्थको जाननेवाले निद्वन्, आपने मेरे साधनेमें इतना भारी कष्ट सहा तव कहीं मैं सिद्ध हुई। और अब आप मेरा कुछ भी फल प्राप्त न कर दीक्षा ले रहे हैं, यह क्या बात है । यदि आपकी ऐसी ही मनसा थी तो फिर मेरे साधनेके लिए आपने व्यर्थ ही इतना क्लेश उठाया । यह प्रौढ़ और दृढ़ गदा युद्धमें जय दिलाती है, संसारमें कीर्ति फैलाती है और भॉति भाँतिके दिव्य भोगोंको देती है । अत एव जव आपने इसे साधा है और यह सिद्ध हो गई है तब इसका आप अवश्य ही फल प्राप्त कीजिए और गंभीरतासे काम । लीजिए । भला जिसके प्रभावसे देव भी आकर नौकरी बजाते हैं और मनुष्य सदा ही सेवामें हाजिर रहते हैं ऐसी उत्तम विद्यासे आप उदास होते हैं, यह कहाँ तक उचित है । अतः आप इससे किसी तरह भी उदास मत हूजिए। विद्याके इन वचनोंको सुन कर उसने उत्तम वचनोंमें कहा कि विद्यादेवि, तुमसे मैंने यही भारी फल पा लिया है जो मुझे तुम्हारे प्रभावसे ऐसे महा मुनिराजका समागम मिल गया । तुम्हीं कहो कि यदि मैं विद्या न साधता तो इनका समागम माप्त कर सकता । अतः मैं जो तुमसे मुनि समागम रूप फल पा चुका-यही मेरे लिए बहुत है । इस उत्तरसे उसको निश्चल जान कर विद्याने मधुर वाणी द्वारा फिर भी कहा कि नरेन्द्र, तुम बड़े विचक्षण पुरुष हो, सब कुछ जानते हो । देखो, मै फिर भी कहती हूँ कि तुम मुझे साध कर मत छोड़ो । मै तुम्हारे पुण्य-प्रतापसे ही अपना स्थान छोड़ तुम्हारे पास आई हूँ, और तुम तुझे छोड़ना चाहते हो । तव आप ही कहें कि मै दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर अब क्या करूँ।' इस वक्त मेरी वैसी ही गति हो रही है जैसी कि राज्य छोड़ कर दीक्षा ले पुनः दीक्षासे भी भ्रष्ट हो जानेवाले पुरुषकी होती है । वह न इधरका रहता है और उधरका । यही हाल मेरा भी है जो मैं न इधरकी रही न उधरकी-मेरा कोई
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy