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________________ आठवाँ अध्याय । १०७ इच्छा हो तो मनके मैलको दूर कर सुनो । पतिवरे, प्रसिद्ध और वीरे ! मै तुमको सव हाल सुनता हूँ । जरा ध्यान देकर सुनो। - कुरुजांगल देशमें एक हस्तिनागपुर नाम नगर है। वहाँ धृतराष्ट्र राजा रहते हैं। मैं उनका छोटा भाई हूँ। मुझे सब कोई जानते हैं । मैं समता-भावको और क्षमाको धारण करनेवाला हूँ। लोग मुझे पाड पण्डित कहते हैं। क्योंकि मेरेमें संसार भरकी पॉडुता आकर इकट्ठी हो गई है। मेरी आज्ञाको कोई लॉघ नहीं सकता और ऐश्वर्यमें दखल नहीं दे सकता। अतः मै इन्द्र के तुल्य हूँ। और जिस तरह योगी जन आत्माका, कामदेव रतिका और कामी पुरुष स्त्रीका स्मरण करते हैं उसी तरह तुम्हारा स्मरण करता हुआ, कामातुर हो मैं तुम्हारे पास आया हूँ । मेरा मन बिल्कुल तुम्हारे अधीन हो चुका है। वह अब मेरे वशमें नहीं है। पांडके इन चनोंको गौरके साथ सुन चुकने पर वह वोली कि राजन् ! मैं अभी विना ब्याही हूँ । अतः यदि इस समय यह कार्य होगा तो लोगोंमें बहुत अफवाह उड़ेगी और बड़ी बदनामी होगी । दूसरी बात यह कि पिताकी आज्ञाके बिना चीरा और कुलवती कन्याएँ अपने आप किसीको अपना वर भी नहीं वनाती । इस लिये आप इस अयुक्त वातको न कह कर जो सर्व-सम्मत हो वही वात कहिए । इस पर कामकी पीड़ासे पीड़ित पहुिने उत्तरमें कहा कि कामिनि, तुम्हारे नामके 'कुन्ती' इन दो अक्षरोंके मंत्र द्वारा खींचा गया तो मैं यहाँ तक आया हूँ और यदि इस समय कामकी आज्ञाको लॉघू तो हे भीरु ! मुझे बहुत डर लगता है कि काम न जाने मुझे आज्ञा भंगकी क्या सजा देगा । यह मेरे हृदयको जरित किये डालता है । कामदेवके भयसे कामसे पीड़ित हुए पुरुपोंकी मृत्यु तक हो जाती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । इस लिये तुम मेरे वचनोंको अपने हृदयमें स्थान दो और वहॉसे लज्जा-रूपी वेलकी जड़को उखाड़ दो । वास्तव बातको जाननेवाली होकर भी तुम लोकापवादका भय करती हो । देवी, मदोन्मत्त काम-रूपी हाथी मदसे उद्धत होकर नीति-रूप अकुंशको नहीं मानता और स्वच्छन्द हो इधर उधर-जहाँ उसका मन चाहता-घूमता है । और भी सुनो कि तभी तक लोक-लाज रहती है। तभीतक धर्म-वृक्ष हराभरा रहता है और तभी नक शास्त्रज्ञान रहना है जब तक कि काम-रूप हाथी कोप नहीं करता; उद्धत नहीं होता । बस, अब बहुत वात चीतसे कोई लाभ नहीं; किन्तु अन्तिम बात यह है कि या तो अपने शरीरका मेरे हाथमें दे दो या मेरी मृत्युको अपने हाथमें ले लो । देवी, तुम डरो मत; आलिंगन
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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