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पाण्डव-पुराण।
ऐसी प्रसिद्धि है कि महादेवने कामको जला डाला था। परन्तु काम फिर भी लोगोंको पीड़ा देता है । अतः यहाँ यह प्रश्न उठता है कि वह जीवित कैसे हो गया ! इसके उत्तरमें कवि उत्पेक्षा करता है कि कुन्तीके जघन-स्थलको सुंघ कर कामदेव जीवित हो गया है। जैसे कमलों पर उड़नेवाला भौंरा उनके रसको पीकर होशमें आ जाता है । यह अचम्भेकी बात है कि चित्रके जैसी लिखी हुई होकर भी वह विचित्र आकारोंको धारण करती थी। उसके नेत्र चित्रमें लिखे हुए हरिणके नेत्रों कैसी आभावाले थे; परन्तु फिर भी वे मनुष्य के नेत्र रूप हरिणोंको बॉध लेते थे । यह सब देख-कर पांडुने सोचा कि इसके विना मैं अब अपना व्यर्थ ही समय खो रहा हूँ और वह एकदम मानमद छोड़ कर प्रगट हो गया । इस समय चंद्र जैसे मुहवाले और कान्तिके सदन पांडुको देखकर कुन्तीका दृढ़ शरीर कुचों-सहित काँप गया। वह उसकी सुन्दरता देखकर विचार करने लगी कि इसका ललाट ही इतना कान्तिशाली है या इसमें अष्टमीका आधा चाँद खचित हो रहा है । इसके शिर पर यह केश-पास है या काम-अनिकी शिखा है । इसके सुन्दर कपोल-रूप भीतोंमें कामदेव ही चित्रित हो रहा है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो तो इसके कपोलों को देखकर स्त्रियोंका काम उद्दीत क्यों हो जाता है । इसके वक्षस्थलमें हारके छलसे लक्ष्मी ही रमती है, क्रीड़ा करती है। यदि ऐसा नहीं हो तो फिर इसके हृदयको पाकर अथोत् इसके मनमें स्थान पाकर पुरुष लक्ष्मीवाले क्यों हो जाते हैं। इसकी दोनों भुजाएँ भोगने योग्य स्त्रियोंको बॉधनेके लिये मानों दो पाश ही हैं। ऐसा न हो तो फिर उन भुजाओंको देखकर स्त्रियाँ वधीसी क्यों हो जाती है। कुन्ती विचारती है कि इसके मुंहमें तो सरस्वती रहती है-सोती है, हृदय-मन्दिरमें लक्ष्मी निवास करती है तथा शरीरमें शोभा रहती है। अब मैं इसके किस भागमें रहूँगी-स्थान पाऊँगी । तात्पर्य यह कि इसके सभी स्थान तो और
औरने घेर लिये हैं, अब मुझे कहाँ जगह मिलेगी; मैं कहाँ रहूँगी । यह सूरज है कि चाँद हैं। इन्द्र है या घमंडी काम है; धरणेन्द्र है कि किन्नर देव है। यह सीमा युक्त, दुर्लध्य और विघ्न-बाधाओंसे रहित मेरे मन्दिरमें कैसे और किस लिये आया है । इतना सोच विचार कर उसने साहसके साथ कहा कि हे साहसशाली! आप कौन हैं और किस कपटसे मेरे महलमें आये हैं । कुन्तीके इन वचनोंको सुनकर उसके आलिंगनके लिये जंभाई लेता हुआ श्रमी, वाग्मी, तत्वज्ञ और कृतज्ञ पांडु बोला कि हे सुश्रोणि ! यदि तुम्हें सुननेकी