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आठवाँ अध्याय ।
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और मैं वेगसे विमान लिये चला गया। पीछे जब कुछ देरमें याद आई तब उस माणप्यारी अंगूठीको खोजनके लिए मैं लौट कर यहाँ आया हूँ । उसकी बात पूरी ही न हो पाई थी कि वीचमें ही पॉडु वोल उठा कि इसके द्वारा आप कौनसा काम साधते हैं । विद्याधरने कहा कि यह अंगूठी मनचाही वस्तु देनेवाकी है। इसके द्वारा जैसा रूप चाहें बना सकते है । यह यथेष्ट रूपकी देनेवाली है । यह । सुन पांडु कहने लगा कि मित्र ! यदि यह ऐसी है तो कुछ दिनोंके लिए मुझे दे दीजिए । मैं इसे हमेशा अपने हाथकी उंगुलीमें पहनूंगा; और पीछे कार्य सिद्ध हो जाने पर आपको वापिस दे दूंगा। इस तरहकी प्रार्थना करने पर उस परोपकारी वज्रमाली विद्याधरने पांडुको वह अंगूठी देदी । उसने विचारा कि जड़ मेघतो विना याचनाके ही दूसरोंको मीठा-ठंडा-जल पिलाते हैं और मैं चेतन होकर यदि याचना करने पर भी अँगूठी न दूं तो मैं जड़ मेघोंसे भी गया वीता हो जाऊँगा।
अॅगठीको उँगलीमें पहिन कर वह खरीपुरको चला गया, जहाँ कि सूर राजा रहता था । वहाँ रातके वक्त उसने अंगूठीके प्रभावसे अदृश्य रूप बनाकर अन्तःपुरके रनवासमें प्रवेश किया तथा कुन्तीके रूपकी मन ही मन कल्पना करता हुआ वह उसके महलमें पहुँचा । कुन्ती आसन पर बैठी हुई थी । सुन्दर वस्त्र पहिने थी। उसका शरीर सुडौल, कोमल और रूप लावण्यवाला था। वह कामदेवकी रतिके समान ही देख पड़ती थी।
उसने कामदेवको अपने भुजारूप दंडोंसे विशेष दंडवाला कर दिया था, अत एव कामके जोरसे वह मदनातुर हो रही थी, उसके हृदयमें कामदेव बस गया था । वह मदके उन्मादसे विलक्षण ही विनोद करती थी । उसका मन बहुत गंभीर था । साराश यह है कि यह सब बातें उसमें थीं, पर वह इनको अपने गहरे मनके सिवा किसीके कर्ण-कुहरमें नहीं जाने देती थी। उसके गोल और कठिन कुचोंके भार और भारी नितम्बोंके भारसे उसकी कमर बिल्कुल पतली हो गई थी । ठीक ही है कि चाहे कोई भी हो, जो मध्यस्थ होता है उसे तकलीफ सहनी ही पड़ती है । जयशील अनंग-कामदेव-जव सारे संसारको एकदम जीत चुका और उसे कहीं भी रहनेको जगह न रही तब घूमता फिरता वह इसके पास आया और इसमें कुचोंमें स्थिर हो गया। यदि ऐसा नहीं हो तो फिर कुचोंके स्पर्शसे वह प्रगट क्यों हो आता है।
पाण्डव-पुराण १४