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चौबीसौं अध्याय ।
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हो गये । इसके बाद उत्तम आचरणोंके धारक सोमदत्त आदिने वरुण नाम गुरुके पास जाकर, उन्हें नमस्कार कर उनसे जिनदीक्षा ले ली । इसी प्रकार नागश्रीकी कृतिको जान कर परस्परमें परम भीति रखनेवाली धनश्री और मित्रश्री भी विरक्त हो गई और उन्होंने गुणवती अर्जिकाके पास जाकर दीक्षा ले ली । उक्त तीनोंहाने धर्मध्यानमें लीन होकर पॉच आचारोंका पालन किया और वाह्य तथा अभ्यन्तर तपोंको तपा; तथा अन्त समय संन्यास धारण कर, शम-दममें उद्यत हो, प्राणोंको छोड़ कर वे आरण और अच्युत स्वर्गमें गये । इसी मकार धनश्री और मित्रश्री भी शुद्धिके साथ उत्तम आचरण करती हुई शीलरक्षाके हेतु सिर्फ एक सफेद साड़ी पहिने हुए बड़ी ही सुशोभित हुई और अंतमें परिग्रहसे विमुख हो, संन्यास ले, सम्यग्दर्शनके वलसे स्त्रीलिंग छेद कर, आरण-अच्युत स्वर्गमें गई । आरण और अच्युत नामके स्वर्गोमें उक्त पॉचों ही जीव सामानिक जातिके देव हुए। और वे परमोदयशाली वहाँ सर्वोत्तम सुख भोगते हुए चिरकाल तक रहे । वहाँ उन्होंने उपपाद शिला पर दिव्य शरीर पाया और सूरजके तुल्य उनकी प्रभा हुई । वे अवधिज्ञान द्वारा अपना पहलेका वृत्तान्त जानते थे, विविध नृत्य कला पारंगत थे, शोक रहित और शंका आदिसे विहीन थे, देवों के द्वारा नमस्कृत थे और नाना तरहकी सेनासे विराजित थे। वे शुद्ध जलमें स्नान करते थे और जिन-पूजा द्वारा पवित्र थे। वे बाईस हजार वर्ष बीत जाने पर मानसिक आहार लेने थे और बारह पक्ष चले जाने पर श्वासो.
छास लेते थे। उनकी वाईस सागरकी आयु थी और उन्हें बड़ा ही सुख था। जिनदेवके बताये धर्मके निमित्तसे उनका मोह रूपी अंधेरा दूर हो गया था। उनकी हजारों देव पूजा करते थे । वे तीन लोकमें स्थित जिन भगवानकी यात्रा करते थे और हजारों सुंदर देवांगनाएँ उनकी सेवामें उपस्थित रहती थीं। वे जयवन्त हो।
जो बुद्धिधनके धनी संसारमें मनुष्य-जन्म-जन्य सारभूत उत्तम सुखोंको भोग, चौदह प्रकारके परिप्रहसे मोह छोड़, बारह प्रकारके घोर तर तपको तप कर अच्युत-आरण नामके देवस्थानको गये वह सब धर्मका ही पवित्र प्रभाव है। ऐसा जान कर बुद्धिमानोंका कर्तव्य है कि वे अपनी भलाईके लिए सिद्ध-पदके दाना धर्मका सेवन करें।
सच बात एक ही है कि संसारमें धर्म ध्यान करना ही सार है और जो यह विभूति दिखाई देती है वह सब असार है-क्षणभंगुर है ।