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पाण्डव-पुराण |
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क्यों न किया जाय पर उल्लूका बच्चा चमकते हुए सुरजको कभी अच्छा कहेगा ही नहीं । बात यह है कि मिथ्यात्वके मदसे मत्त हुए मोही जीव सदाकाल संसारमें चक्कर काटा करते हैं -- उन्हें कहीं भी सुखका लेश नहीं मिलता; जैसे कि मृग मृगतृष्णा के वश दौड़ा करता है पर वह जल कहीं भी नहीं पाता । इस लिए जो प्राणी अपना हित चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे मिथ्यात्वको बहुत जल्दी छोड़ दें; जैसे कि लोग घरके मैले-कुचैले मलको निकाल कर फेंक देते हैं । सोमिलाने इस तरह नागश्रीको बहुत कुछ धर्मका उपदेश सुनाया, पर उसके मनमें एक भी बात न ठहरी; जैसे कि कमलिनीके पत्ते पर पानी की बूँदें नहीं ठहरतीं ।
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इसके बाद एक दिनका जिक्र है कि धर्मरुचि नाम प्रवर-दृष्टि एक बड़े भारी योगी भिक्षा के लिए सोमदत्त के घर आये | देख कर सोमदत्तने उन्हें पड़ेगाहा और नमस्कार कर ऊँचे आसन पर बैठाया । इसके बाद उसने प्राशुक जल द्वारा उनके पॉव धोये और वह नागश्रीको दानकी विधि बता कार्य वश कहीं बाहर चला गया । इधर नागश्रीने जब दान देने में कुछ गड़बड़ी की तब उसकी सास सोमिलाने उससे कहा कि बहू, दीप्त देहके धारक इन मुनिको तुम उत्तम रीति से तैयार किया आहार दो और नवधा भक्ति-जन्य पुण्यका उपार्जन करो । सासके ये वचन सुन कर मिथ्यात्व-रूपी मदिरा के मोहसे मदोन्मत्त हुई नागश्री बड़ी बिगड़ी और मन-ही-मन इस प्रकार बुरे विचार करने लगी कि यह नग्न मुनि कौन है ? अन्नका नाश करनेवाला दान क्या पदार्थ है ? दान देने से होता क्या है ? और इस नंगेको दान देनेसे फल ही क्या होगा ? इस प्रकार बुरे विचार कर क्रोध से वह थर थर कॉपने लगी । उसे वह सब बड़ा बुरा लगा । उसने तब भोजनमें विष मिला दिया; जैसे नागिनने जहर ही उगला हो ! उसकी सास बड़ी सरल-चित्त थी, अतः उसने न जान पाया कि इस आहार में विष मिला हुआ है । सो उस बेचारीने मुनिको वही आहार दे पात्र दान के प्रभावसे पुण्य उपार्जन किया । उधर भोजन करते ही मुनिके शरीर में क्षण भरमें ही व्याधि बढ़ गई; जैसे कि वर्षाकालमें लताएँ बढ़ जाती है | यह देख योगी भी जान गये कि उन्हें वर्ष दिया गया है । तब बड़ी शान्ति साथ में लीन हो, सावधानी पूर्वक संन्यास लेकर उन्होंने परम तप तपना आरंभ किया और विशुद्ध बुद्धिके साथ आराधानाओं की आराधना कर प्राणों छोड़ा। वह सर्वार्थसिद्धि गये ।
उधर नागश्रीकी इस करतूत का पता जब सोमदत्त आदिको लगा तब उन भश्योत्तमका चित्त बढ़ा उदास हुआ और वे संसार - देह-भोगों से विरक्त