________________
•
>
चौबीसवाँ अध्याय |
३७१
नाम सोमिला था और यह बहुत ही काले रंगकी थी । सोमदेवके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम थे सोमदत्त, सौमिल और सोमभूति । सोमिलाके भाईका नाम अग्निभूति था और उसकी स्त्री थी अनिला । अग्निभूतिके अग्निला के गर्भ से चंद्रमा तुल्य सुंदर मुखवाली तीन पुत्रियाँ हुईं, जिनके नाम थे धनश्री, मित्रश्री और नागश्री । नागश्री तो इनमें सचमुच दूसरी श्री जैसी ही थी। इन तीनोंका क्रमसे सोमदत्त आदिके साथ पाणिग्रहण ( विवाह ) हो गया ।
एक दिनकी बात है कि निमित्त पाकर सोमदेव संसार - देह - भोगों से विरक्त हो गया और जाकर उसने मिथ्या मार्ग से हटानेवाली गुरुके निकट जिनदीक्षा धारण कर ली । उधर भव्य गुणों के भंडार, भक्त, भव्य और धर्मात्मा सोमदत्त आदि तीनों भाई भी धीरता के साथ श्रावक धर्मका अध्ययन करने लगे । और सम्यक्त व्रत धारण करनेवाली निर्मल-चित्त सोमिला भी परम धर्मको धारण कर सिद्धान्त सुनने के लिए उद्यत हो गई । वह उत्तम भावोंवाली अपनी पुत्र वधुओंको सदाकाल यही आदेश देती रहा करती थी कि बुद्धिमानोंने अहिंसा, अचौर्य और ब्रह्मचर्य व्रत कहा है । तुम्हारा धर्म है कि तुम सब इनका पालन करो। इसके साथ तुम्हें यह भी उचित है कि तुम इन व्रतोंकी रक्षाके लिए खॉडना, पीसना, चोका-चूल्हा, पानी छानना आदि विधि बड़ी सावधानीके साथ करो और यथोचित्त तथा पूरी शुद्धिके साथ पात्र दानादि धर्मोंको निवाहो । सोमिलाके इन वचनों को सुन कर दो वधुओंने तो धर्मका बहुत जल्दी और बड़े हर्ष के साथ श्रद्धान कर लिया, लेकिन नागश्रीको उसकी ये बातें न रुचीं और उसने उससे विमुख होकर मिध्यात्वकी ही अभिलाषा की । वा बड़ी दुष्टा थी, उसे धर्म-कर्म सुहाता ही न था । वह क्रोध की खान और कलह- प्रिया थी । सदा ही पाप कर्मों में रत रहती थी ।
सत्य,
यह सब होते हुए भी सोमिलाने उससे फिर भी कहा — उसकी भलाई के लिए उसे उपदेश दिया कि बेटी, मिथ्यात्व सेते सेते तो बहुत काल बीत गया; अब तो धर्मकी तरफ ध्यान दे और विपादको पैदा करनेवाले मिथ्यात्वको छोड़, जिससे तेरे आत्माका भला हो - तेरा संसार-जाल कटे । देख, संसारकी यह दशा है कि जो जीव मिथ्यात्व के नशेसे मोहित हैं वे धर्म पर श्रद्धा ही नहीं लाते; जैसे कि पित्त-ज्वरवाले जीवको मीठा दूध भी रुचिकर नहीं होता । जो जीव पापी हैं या पापाचरणमें मग्न रहते हैं उन्हें चाहे जितना ही धर्मका उपदेश क्यों न दिया जाय कभी भी- न होगा। जैसे कि चाहे free et यत्न
"
A