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विनय ।
प्रिय महाभाग पाठक, आज आपके सामने एक विशाल भेंट लेकर उपस्थित हूँ । इस बातका तो मै दावा नहीं कर सकता कि मुझे अपने कार्यमें पूरी सफलता प्राप्त हुई है और वह आपका यथेष्ट मनोरंजन करेगी; परतु इतना जरूर है कि यह भेंट एक नये रूपमें है, अत एव बहुत आशा है कि आपकी दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी | पांडवपुराणका एक सुंदर अनुवाद स्वर्गीय कविवर बुलाकीदासजीका मौजूद है; और यह मी सच है कि उसकी सुंदरताको यह नहीं पा सकता । पर वह कवितामें है, अत एव उससे हर प्रान्तके भाई जो त्रजभाषा नहीं जानते - लाभ नहीं उठा सकते । दूसरे आजकछ लोगोंका चित्त अपनी मातृभाषा हिन्दीकी उन्नतिकी और दिन पर दिन अधिकाधिक आकृष्ट होता जाता है । और इसमें भी सदेह नहीं कि यह एक शुभ चिह्न है । इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि भारत के सब धर्मोंका साहित्य एक ऐसी भाषामें हो जिसे साधारण प्रयत्नसे, सत्र प्रान्तके लोग, जिज्ञासा होने पर समझ सकें । ऐसी भाषा यदि कोई है तो वह 'हिन्दी' ही है । अत एव आवश्यकता है कि हम उससे अपने धार्मिक साहित्यका भी भंडार भरें ।
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इन्हीं एक दो बातोंको लेकर मैंने यह अनुवाद किया है अनुवाद - कार्यमें मैं कहाँतक सफल हुआ हूँ, इसके विषयमें मुझे कुछ नहीं कहना है । सिर्फ यह निवेदन करना आवश्यक समझता हॅू कि मेरा इस रूपमें यह प्रारंमीय प्रयत्न है। और इसी कारण मार्वोका यथेष्ट व्यक्त करना तथा सुन्दर सुगठित वाक्य रचना करना आदिका इस अनुवाद बढ़ा अभाव है। वह आप जैसे विज्ञक बहुत खटकेगा मी; परंतु फिर भी मैं निराश न होकर आपसे उत्साह पानेकी ही आशा करूँगा ।
इस काम में मुझे अपने प्रिय मित्र श्रीयुक्त उदयलालजी काशळीवाढसे बहुत कुछ सहायता मिली है, अत एव मै उनका चिर आमारी हूँ ।
विनीत, वनश्यामदास न्यायतीर्थ |