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________________ ५२ पाण्डव-पुराण। दोनोंने वहाँसे विहार किया; और विहार करते करते वे पुंडरीकनी नगरीमें आये । वहाँ प्रभावतीको देख कर मियदत्ता सेठानीने संघकी गुराणीसे पूछा कि यह कौन है और इसके ऊपर जो मेरे हृदयमें प्रवल स्नेह हो आया है इसका क्या कारण है ? यह सुन कर प्रभावतीने कहा कि क्या तुम्हें अपने घरमें रहनेवाले उस कपोत-युगलकी याद नहीं है। मैं वही तो हूँ जो तुम्हारे घरमें रतिषणा नाम कवूतरी थी । यह सुन कर सेठानी बोली कि और वह रतिवर कहाँ है ? प्रभावतीने कहा कि वह भी मर कर विद्याधरोंका ईश्वर हुआ था। अव मुनि होकर विहार करता हुआ यहीं आया है। उसका नाम है हिरण्यवर्मा । प्रियदत्ताने मुनिके पास जाकर उन्हें नमस्कार किया। इसके बाद वह भी प्रभावतीके उपदेशसे अर्जिका हो गई । वह बड़ी क्षमा गुणकी धारक थी। सच है वैराग्यका फल ही ऐसा है । __इसके बाद एक दिन हिरण्यवर्मा मुनिने सात दिनके लिए मसान भूमिमें ध्यान लगाया। इधर उस मार्जारके जीव दुष्ट-बुद्धि विद्युच्चोरने प्रियदत्ताकी दासीके मुँइसे उन मुनिराजके पिछले भवोंका हाल सुन रक्खाथा। अनः विभंगावधि ज्ञानसे उन्हें ध्यानस्थ जान कर वह वहाँ आया; और उसने हिरण्यवर्मा तथा प्रभावतीको एस साथ जलती हुई चितामें झोंक दिया। उस समय आगकी कठिन परीपहको शुद्ध भावोंसे सह कर वे दोनों मरे और पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें देव हुए । यह वात जव स्वर्णवर्माके कानमें पड़ी तव उसने विद्युच्चोरको मार डालनेका निश्चय किया । परन्तु अवधिज्ञान द्वारा स्वर्णवर्माके इस विचारको जान कर मुनिका रूप बना वे दोनों देव आये और उन्होंने पुत्रको समझा-बुझा कर शांत कर दिया । इसके बाद दिव्यरूप धारी स्वर्णवर्माको दिव्य वस्त्र-आभूपण वगैरह भेंट कर वे स्वर्गको चले गये । एक दिन उन देवोंने भीम महामुनिको देख कर, उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना। मुनिने कहा कि यह धर्म दया, सत्य और संयम-मय है । इससे जीवोंका कल्याण होता है और उन्हें इससे मन चाहे पदार्थोंकी प्राप्ति होती है । इस पर देवने कहा कि हे वेदके ज्ञाता ! यह कहिए कि आपके दीक्षित हो जानेमें क्या कारण है। इसके उत्तरमें मुनिने कहा कि मैं पुण्डरीकनी नगरीमें एक दरिद्र कुलमें पैदा हुआ था। मेरा नाम भीम है । एक समय मौका पाकर मैंने एक मुनिराजसे आठ मूल गुणों और व्रतोंको ग्रहण किया तथा घर जाकर यह सव हाल पिताजीको कह सुनाया। वे मुझसे बहुत ही नाराज हुए। उन्होंने मुझे बहुत कुछ समझाया, पर मैने उनकी एक वात न मानी । क्योंकि मुझे जाति-स्मरण द्वारा अपने पिछले भव मालूम हो चुके थे । मैं विरक्त हो दीक्षित हो गया-दिगम्बर साधु बन गया। '
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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