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तीसरा अध्याय ।
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कि स्वयंवर - विधि करनी चाहिए । राजाने उनकी इस सम्मतिको स्वीकार किया, और उसीके अनुसार कार्य आरम्भ कर दिया । देश विदेशसे विद्याधर राजा बुलाये गये । और जो जो कन्याके अर्थी थे वे सब आकर वहाँ उपस्थित हो गये । स्वयंवर के समय सव स्वयंवर मंडपमें आकर अपने योग्य स्थानों पर बैठे । प्रभावती वरमाला ले पतिवरणको मंडपमें आई, पर उसने किसीको भी न वरा - पसंद न किया । यह देख उसके माता-पिताने उससे पूछा कि पुत्री यह क्या घात हैं ? कन्याने उत्तर में कहा कि जो कोई मुझे गति-युद्ध जीत लेगा में उसीके गले में वरमाला डालूंगी |
इसके बाद दूसरे दिन फिर स्वयंवर हुआ। उस समय प्रभावतीने सिद्धकूट चैत्यालय के शिखर पर से माला नीचेको डाली । पर किसीने भी वहाँ बने हुए मेरुकी तीन प्रदक्षिणा देकर उस मालाको वीचही में न ले पाया । तब सत्र लज्जित हो अपने अपने घरको चले गये। इसके बाद हिरण्यवर्मा आया । वह गतियुद्ध में बहुत ही प्रवीण था । उसने मेरुकी तीन परिक्रमा देकर बीचही में मालाको हाथोंमें ले लिया । यह देख प्रभावतीने बड़ी खुशी से उसके कंठमें वरमाला पहिना दी। इसके बाद हिरण्यवर्माने सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर भगवानके स्तवन आदि कल्याणकारी उत्सवके साथ विधि पूर्वक प्रभावतीका पाणिग्रहण किया ।
इसके कुछ दिनों बाद एक दिन प्रभावतीने एक कबूतरोंके जोड़ेको उड़ते देखा । उसे देखते ही उसे अपने पिछले भवोंकी याद हो आई और उसके परिणाम विरक्त हो गये । उस समय प्रभावतीने एक चारण मुनिसे पूछा कि प्रभो ! मेरे पिछले भवकी कथा कहिए। मुनिने उत्तर में पीछे लिखी हुई वधू-वर आदिकी सभी कथा कह दी | उसे सुन कर प्रभावती और हिरण्यवर्मामें गाढ़ प्रीति उत्पन्न हो गई। एक दिन आदित्यगति नष्ट होते हुए बादलों को देख कर विरक्त हो गया; और हिरण्यवर्माको राज्य देकर उसने जिनदीक्षा धारण करली । हिरण्यवर्माने बढ़ी उत्तपताके साथ बहुत दिनों तक राज्य किया; परन्तु कुछ काल बाद किसी निमित्तको पा वह भी विरक्त हो गया । उसने अपने पुत्र स्वर्णवर्माको राज्य देकर आप स्वयं पैदल श्रीपुर आ श्रीपाल नाम मुनिसे दीक्षित हो गया । वह बड़ा निर्लोभी था देवता- गण उसकी सेवा करते थे । अपने स्वामीको जित देख प्रभावतीने भी गुणवती नाम अर्जिकासे जिनदीक्षा लेली; और कायक्लेश तप तथा शास्त्रचिन्तनके द्वारा वह शरीरको सुखाने लगी। कुछ समय बाद हिरण्यवर्मा और प्रभावती