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वीसवाँ अध्याय ।
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बीसवाँ अध्याय |
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उन अनंतनाथ भगवानको प्रणाम है जो अनंत संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए सेतु हैं और जो अनंत गुणोंके भंडार हैं । वे मुझे भी अनन्त चतुष्टयका दान दें |
इसके वाद विदुरने विरक्त हो सांसारिक सुखको क्षणभंगुर समझा । वैराग्यमें लीन हो वे सोचने लगे कि इस सम्पत्ति, प्रभुता और विषयजन्य सुखको धिक्कार है जिसके लिए पिता पुत्रको, पुत्र पिताको, मित्र मित्रको और बन्धु बन्धुको भी मार डालता है । ये कौरव अधर्मरूपी चांडालके सम्बन्धसे मलिन हो रहे हैं । अतः ये अवश्य ही युद्धमें अपने प्राण देंगे और इसी लिए अत्र मैं इन दुष्टोंका मुँह देखना नहीं चाहता । इस प्रकार विचार करके विज्ञानी विदुर कौरव राजोंसे कह कर वनको चले गये । वहाँ जाकर उन्होंने विपुलमना विश्वकीर्तिमुनिको प्रणाम कर उनसे धर्मका उपदेश सुना तथा सुनिधर्मकी दीक्षा ले ली | बाद परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि हो परम तप तपते हुए वे विहार करने लगे ।
एक दिन एक पुरुष राज- मन्दिर पुरमें आया और उसने जरासंघको रत्न-समूह भेंट कर प्रणाम किया । जरासंघने उससे पूछा कि तुम कहाँ से आये हो । उत्तर में वह बोला कि राजन्, मैं आपके दर्शनोंकी इच्छासे द्वारिकासे यहाँ आया हूँ | जरासंध पुनः पूछा कि वहाँका राजा कौन है । उस आगन्तुकने कहा कि नेमि प्रभुके साथ-साथ कृष्ण नारायण वहाँका राज्य करते हैं । वहाँ यादवका निवास सुन कर जरासंध के क्रोधका पारा एकदम चढ़ गया । वह असमयमै क्षुभित होनेवाले मलय कालकी भाँति अपनी सेना द्वारा समुद्रको क्षोभित करता हुआ द्वारिकाको चल पड़ा ।
उधर बिना कारण ही इस युद्धको छिडता देख कर नारदको बड़ी मसनता हुई और उन्होंने वैरियोंका विध्वंस करनेवाले जरासंध के महान क्षोभका हाल आकर कृष्ण से कहा । तब कृष्ण नेमिप्रभुके पास आये और उन्होंने शत्रुके क्षयसे होनेवाली अपनी विजयके वाचत उनसे पूछा । उत्तर में इन्द्रों द्वारा सेवित प्रभु कुछ न कह कर कुछ मुसक्या गये । प्रभुके इस मंदस्मितसे अपनी विजय निश्चय कर कृष्ण युद्धके लिए तैयार हुए । उनके साथ ही यादवों के अन्य
पाण्डव-पुराण ३१